समरस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विकास पथ पर भारत


प्राचीन काल से ही भारत समरस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतीक रहा है। भिन्न-भिन्न धर्मों के अनुयायी यहां होते हुए भी भारत की मूल संस्कृति से लोगों का गहरा जुड़ाव रहा है। लोग आपस में मिल-जुलकर रहते रहे हैं और यह सिलसिला सदियों तक चलता रहा किंतु इस्लाम धर्म की उत्पत्ति के बाद कुछ हद तक भोगवादी, वर्चस्ववादी और तानाशाही मानसिकता बढ़ने लगी, जिसके कारण कुछ लोगों के मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं वही सबसे अच्छा है। उसका परिणाम यह हुआ कि अल्पसंख्यक होते हुए भी कुछ लोग बहुसंख्याकों पर हावी होते चले गये और यहीं से भारत की समरस सांस्ं्र्र्र्रंतकवाद की विचारधारा पर आघात लगना शुरू हो गया और यह सिलसिला पूरे मुगलकाल तक चला। इन्हीं शौक मिजाजियों के बीच अंग्रेजों ने भारत में ईष्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से प्रवेश किया।
अंग्रेजों ने सिर्फ भारत में अपनी पैठ ही नहीं बनाई बल्कि अपना प्रभाव और विस्तार अनवरत करते गये। इस काम के लिए अंग्रेजों ने किसी भी प्रकार का कार्य करने से परहेज नहीं किया। अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति के अतिरिक्त शोषण, प्रलोभन और कानून का खूब बेजा इस्तेमाल किया। यह बताने में मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अंग्रेजों के राज में इस देश में लगभग 3800 कानून बने, जिनमें से काफी समाप्त कर दिये गये और बाकी उनके पूर्व प्रारूपों के अनुरूप मौजूद हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि अंग्रेजों ने जब भी कोई समस्या देखी उसे अपने हिसाब से निपटाने के लिए कानून बना दिया और उसी कानून की आड़ में अपना बर्चस्व बढ़ाते गये। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजों ने अपना वर्चस्व कायम करने के लिए हर वह हथकंडा अपनाया, जिससे उनका प्रभाव व वर्चस्व बढ़ सकता था। मगर हिन्दुस्तान के तमाम प्रभावशाली एवं क्रांतिकारी किस्म के लोगों को यह आभास होने लगा कि अंग्रेज सिर्फ अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। भारत के हित में उनकी कोई रुचि नहीं है। अतः ऐसे लोगों ने अंग्रेजों के इस प्रकार के कार्यों का विरोध करना शुरू कर दिया, किंतु अंग्रेज भी कहां कम थे, उन्होंने अपनी ‘बांटों और राज करो’ की नीति के तहत भारतीय समाज के प्रभावशाली लोगों के बीच अपनी पैठ बढ़ाकर अपना उल्लू सीधा करना शुरू कर दिया। इस प्रकार की नीति अंग्रेजों ने सभी धर्मों एवं समाज के लोगों के प्रति अख्तियार की। चूंकि, अंग्रेजी शासन के खिलाफ असंतोष शुरू हो चुका था और अंग्रेजों ने इस असंतोष को भली-भांति भांप लिया था। अंग्रेजों को लगा कि कहीं यह समस्या विकराल रूप धारण न कर ले, समय रहते इसका निदान किया जाये। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए एक अंग्रेज ए.ओ. ह्यूम ने 1885 में कांग्रेस की स्थापना की, जिसमें अंग्रेजों के साथ-साथ तमाम प्रभावशाली भारतीय भी सम्मिलित हुए। वास्तव में इस कांग्रेस का वास्तविक मकसद यह था कि भारत में अंग्रेजी शासन के विरूद्ध पनप रहे विद्रोह एवं असंतोष को रोकना एवं दबाना किंतु अंग्रेजों की यह इच्छा पूरी न हो सकी और इसी काल में भारतीय समाज के धार्मिक एवं आध्यात्मिक मनीषियों के साथ-साथ प्रभावशाली सोच के लोगों ने आजादी के लिए आंदोलन की भूमिका तैयार की। हालांकि, अंग्रेजी शासन के खिलाफ बगावत की शुरुआत क्रांतिकारी मंगल पांडेय के नेतृत्व में 1857 में मेरठ से हो चुकी थी, किंतु अंग्रेजों को यह भ्रम था कि वे इस बगावत को दबाने में कामयाब हो गये हैं।
इन्हीं परिस्थितियों में एक लंबे आंदोलन के बाद देश आजाद हुआ और आजादी के लिए किन-किन और कितने लोगों ने शहादत दी, कितने लोग जेल गये और क्या-क्या हुआ, यह सब ऐतिहासिक तथ्य एवं साक्ष्य के रूप में हम सबके सामने है किंतु एक बात मैं कहना चाहता हूं कि आजादी के बाद से अब तक लगभग 52 वर्षों तक अंग्रेजों द्वारा बनाई गई कांग्रेस या उसके द्वारा समर्थित लोगों ने भारत की सत्ता का संचालन किया, जिसमें बांटो और राज करो, सांम्प्रदायिकता की आग को कभी ठंडा मत होने दो, जातिवाद का जहर समाज में और अधिक घुलता रहे इत्यादि जैसे हथकंडे अपना कर देश को पीछे ले जाने का काम किया गया यानी जिस देश को सोने की चिड़िया कहा जा था, वह मिट्टी की भी चिड़िया कहलाने लायक नहीं रहा। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इन 52 वर्षों में देश को गड्ढे में डालने का काम किया गया। देश में सिर्फ घोटालों एवं नाकामियों की चर्चा ही होती थी।
किंतु सौभाग्य की बात है कि प्राचीन भारत से लेकर तत्कालीन समय तक पहली बार भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की नींव पड़ी और कुछ हद तक सफलता भी मिली और श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में देश में 1996 में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी। देश आगे बढ़ा और राष्ट्र ने काफी प्रगति भी की किंतु दुर्भाग्यवश कुछ समय बाद राष्ट्र ऐसे हाथों में चला गया जिन्होंने भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ताक पर रखकर देश को पीछे ले जाने का काम किया किंतु इतिहास और समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता। चूंकि, समय परिवर्तनशील है और अपनी इसी प्रवृत्ति के मुताबिक समय ने एक बार फिर करवट ली और 2014 में प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में एनडीए की सरकार बनी। इस सरकार ने भारतवासियों के अंदर नई किरण, नई ऊर्जा, नई उमंग एवं नई आशा का संचार किया। मुझे यह बताने एवं कहने मे अत्यंत हर्ष हो रहा है कि नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व वाली यह सरकार समरस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मूल मंत्रा के साथ भारत का विकास कर रही है और देश का मान-सम्मान पूरी दुनिया में बढ़ रहा है। हालांकि, प्रारंभ में विपक्षी दलों ने इस बात का प्रचार-प्रसार बहुत जोर-शोर से किया कि यह सरकार सांप्रदायिक एजेंडे पर काम कर रही है किंतु देशवासियों की समझ में यह अच्छी तरह आ गया था कि यह सरकार सांप्रदायिक नहीं बल्कि समरस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेंडे पर कार्य करने वाली सरकार है। नरेंद्र भाई मोदी जी की सरकार का स्पष्ट रूप से मानना है कि तुष्टिकरण किसी का नहीं होगा किंतु विकास सभी का होगा यानी कि सभी को विकास के समान अवसर उपलब्ध होंगे, यानी यह सरकार 2014 से लेकर अब तक ‘सबका साथ और सबका विकास’ के एजेंडे पर काम कर रही है। यही कारण है कि लोग अब यह भी स्पष्ट रूप से मानने लगे हैं कि देश ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के रास्ते पर अग्रसर है यानी कि सरकार की नजर में पूरा भारत एक ही जैसा महत्व रखता है चाहे वह कश्मीर हो या देश का कोई अन्य प्रांत या कोई छोटा शहर ही क्यों न हो।
अब कोई यह कहना या सुनना नहीं चाहता कि देश के संसाधनों पर अमुक समाज, जाति एवं धर्म विशेष के लोगों का प्रथम अधिकार है। अब सरकार की नजर में देश का प्रत्येक नागरिक बराबर है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्राी का दायित्व सौंपकर प्रधानमंत्राी ने यह साबित कर दिया कि भारत लगातार समरस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विकास पथ पर अग्रसर होता रहेगा। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्राी बनने से पहले कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दल यही कहा करते थे कि योगी आदित्यनाथ सांप्रदायिकता के प्रतीक हैं यानी कि वे सिर्फ हिन्दुत्व की बात करते हैं किंतु अब इस देश के मुस्लिम भी अब समझ चुके हैं कि सभी विपक्षी दलों ने मुस्लिम समाज को मात्रा वोट बैंक के रूप में अभी तक इस्तेमाल किया है।
तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम समाज के तमाम लोग एवं महिलाएं अब यह समझने एवं मानने लगीं हैं कि इस मामले में मोदी सरकार बिल्कुल सही दिशा में जा रही है। वैसे भी देखा जाये तो यह देश सदियों से तमाम आपत्तियों एवं आक्रांताओं के खौफ को झेलते हुए आज भी अखंड रूप से खड़ा है तो उसका एक मात्रा कारण यह है कि भारत भूमि में सभ्यता एवं संस्कृति की जड़ें बहुत गहरी हैं। आज पूरी दुनिया भारत से दोस्ती करने की इच्छुक है।
वर्तमान भारतीय राजनीति का यदि ईमानदारी से विश्लेषण किया जाये तो यह कहा जा सकता है कि जो नेता कभी भाजपा को अछूत समझते थे और अपने आपको धर्म निरपेक्षता का लंबरदार समझते थे आज वे लाइन लगाकर भारतीय जनता पार्टी में सम्मिलित होने के लिए उतावले हैं। इसका सीधा सा अभिप्राय यह है कि तथाकथित धर्म निरपेक्षता की आड़ में कोई भी अपनी कमियों को बहुत दिनों तक छिपा नहीं सकता है।
आज वही भारत में भी दिख रहा है। हिन्दुस्तान में आज विपक्षी दलों के तमाम नेता यह कहते हुए मिल जाते हैं कि उन्हें अपने आपको राष्ट्रभक्त एवं राष्ट्रवादी के रूप में दिखाने एवं प्रचारित करने की जरूरत नहीं है किंतु भारतीय जनता पार्टी यदि किसी प्रांत में स्थानीय निकायों का भी चुनाव लड़ती है तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चर्चा अपने आप होने लगती है। अपने आप में यह बहुत बड़ी बात है। राजधानी दिल्ली में नगर निगम चुनाव में भाजपा को जबर्दस्त जीत मिली किंतु पार्टी ने किसी प्रकार का जश्न मनाने से इसलिए इनकार कर दिया कि सुकमा में सीआरपीएफ के 25 जवान नक्सलवादियों द्वारा शहीद कर दिये गये। आखिर यह सब क्या है? इसी को कहते हैं राष्ट्रभक्ति एवं राष्ट्रवाद की भावना न कि किंतु-परंतु के साथ नक्सलवादियों का बचाव करना। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अब भारत में समरस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लौ लगातार जलती जा रही है और इसके आगे भी इसी तरह जलते रहने की उम्मीदें बरकरार हैं।