नर सेवा ही नारायण सेवा


समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की सेवा का संकल्प किसी न किसी रूप में तमाम लोग लेते रहे हैं। राजा-महाराजाओं, ऋषियों-मुनियों, समाज के प्रतिष्ठित लोगों द्वारा इस बात पर हमेशा जोर दिया गया है कि समाज में अंतिम पायदान पर खड़ा व्यक्ति यानी धन, संपदा और संसाधनों के मामलों में जो सबसे कमजोर हो, उसका उद्धार कैसे किया जाये, उसकी रोजी-रोटी कैसे चले, इस प्रकार की भावना समय-समय पर अनेक लोगों के मन में आती रही है। इसी प्रकार की भावना का उदय पंडित दीन दयाल उपाध्याय के मन में भी हुआ, जिन्हें भारतीय जनता पार्टी अपना प्रेरणा स्रोत मानती है।

चूंकि, पंडित दीन दयाल उपाध्याय का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। भारतीय जनता पार्टी इस वर्ष को पं. दीन दयाल उपाध्याय जन्म शताब्दी वर्ष के रूप में मना रही है। यह सर्वविदित है कि पंडित जी ने अंत्योदय यानी समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के उदय का संकल्प लिया था। अपने इसी संकल्प को प्रकट करते हुए कालीकट में जनसंघ के एक सम्मेलन में पंडित जी ने कहा था कि हमने किसी संप्रदाय या वर्ग की सेवा का नहीं बल्कि

संपूर्ण राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया है। सभी देशवासी हमारे बांधव हैं। जब तक इन सभी बंधुओं को भारत माता के सपूत होने का सच्चा गौरव प्रदान नहीं करा देंगे, हम चुप नहीं बैठेंगे। हम भारत माता को सही अर्थों में सुजला, सुफला बनाकर रहेंगे। यह दशप्रहरण दुर्गा बनकर असुरों का संहार करेगी, लक्ष्मी बनकर जन-मन को समृद्धि देगी और सरस्वती बनकर अज्ञानान्धकार को दूर कर ज्ञान प्रकाश फैलायेगी।

हिंद महासागर और हिमालय से परिवेष्ठित भारत खंड में जब तक एकरसता, कर्मठता, संपन्नता, ज्ञानवता, सुख और शांति की सप्त जान्हवी का पुण्य-प्रवाह नहीं ला पाते, हमारा भागीरथ तप पूरा नहीं होगा।  इस प्रयास में ब्रहा, विष्णु और महेश सभी हमारे सहायक होंगे। विजय का विश्वास है। तपस्या का निश्चय लेकर चलें। पंडित जी की इन बातों के माध्यम से यह स्पष्ट हो जाता है कि आखिर वे चाहते क्या थे?

पंडित जी अंतिम व्यक्ति की सेवा किस स्तर पर जाकर करना चाहते थे, उसे एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है। ट्रेन में बैठकर पंडित जी मुजफ्फर पुर से मोतिहारी जा रहे थे। उसी डिब्बे में जिले के कोई उच्च पदाधिकारी भी सफर कर रहे थे। दीन दयाल जी के जूते गंदे थे, धूल-धसरित। ऐसी बातों की तरफ उनका ध्यान कभी नहीं जाता था। डिब्बे में एक लड़का आया और उपाध्याय जी के जूते उठाकर पालिश करने लगा। उपाध्याय जी अखबार पढ़ रहे थे, पढ़ते रहे। जब पालिश कर चुका तो वह लड़का उक्त अफसर से भी पूछने लगा, ‘‘साहब पालिश?’’ साहब ने पूछा, ‘‘कपड़ा है साफ करने का?’’ ‘‘नहीं।’’ लड़के ने दीनता से कहा। साहब ने कहा, ‘‘तब जाओ।’’ लड़का उपाध्याय जी से पैसे लेकर वापस जाने लगा। चेहरे पर बेबशी की छाया थी। उपाध्याय जी उठे। उसे रोककर कहा, ‘‘बच्चे, साहब के जूतों पर भी पालिश करो।’’ फिर अपने झोले से एक पुराना और जर्जर तौलिया निकाला। उसका एक टुकड़ा फाड़ा और लड़के को देते हुए कहा, ‘‘लो बच्चे, यह कपड़ा लो। ठीक से रखना। फेंकना नहीं। देखा, बिना इसके तुम्हारा अभी नुकसान हो गया था।’’ लड़का खुश होकर उन अफसर महोदय के जूतों पर पालिश करने लगा। अब उपाध्याय जी का वास्तविक परिचय पाकर वे महाशय चकित हो रहे थे। देखा जाये तो इस घटना का अपने आप में बहुत विशेष महत्व है। इस कहानी को अपने जीवन में आत्मसात कर बहुत कुछ सीखा एवं किया जा सकता है।

पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी का स्पष्ट रूप से मानना था कि ‘जब तक समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की समस्याओं का निदान नहीं हो जाता तब तक विकास की किसी भी परिभाषा को पूर्ण नहीं माना जा सकता, चाहे वह विकास किसी माध्यम से हुआ हो।

आज पूरी दुनिया पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, क्षेत्रावाद, संप्रदायवाद, भाषावाद, जातिवाद या अन्य तमाम प्रकार के वादों की पूंछ पकड़कर समाज सेवा में लगी है। हालांकि, राजनीति में ये सभी वाद बहुत ही प्रमुखता से चल रहे हैं, सेवा के बहाने उसका मकसद भले ही सत्ता प्राप्ति का हो। इन तमाम तरीकों से यदि अंतिम व्यक्ति का उदय नहीं हो रहा है तो माना जायेगा कि ये सभी रास्ते अच्छे नहीं हैं। इस दृष्टि से देखा जाये तो पूरे विश्व में यहूदी समुदाय बहुत ही बेहतरीन काम कर हा है।

यहूदी समाज में एक परंपरा है कि उस समाज में यदि कोई व्यक्ति अंतिम छोर पर खड़ा है तो बिना उसे बताये या एहसास कराये उसकी ऐसे मदद कर दी जाये कि उसका उद्धार हो जाये। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि यहूदी समाज में यदि कोई भी अक्षम, लाचार एवं कमजोर व्यक्ति है तो उस समाज के सक्षम लोग उसकी सर्व दृष्टि से मदद कर उसे भी अपने समकक्ष यानी सक्षम बना देते हैं। शायद यही कारण है कि यहूदी समाज में बहुत ही मुश्किल से अंतिम छोर पर कोई व्यक्ति खड़ा मिलेगा। यदि सभी समाज के लोग ऐसा ही करने लगें तो समाज में कोई दीन-हीन मिलेगा ही नहीं।

यहां पर यह बताने का तात्पर्य है कि शायद यही कारण है कि ईश्वर की कृपा यहूदी समाज पर बरसती रहती है, किंतु इसी प्रकार की परंपरा हर समाज, पूरे देश, प्रत्येक राज्य में विकसित हो जाये तो सही मायनों में पंडित दीन दयाल उपाध्याय का सपना साकार हो सकता है। वास्तव में पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी का यही मूल मंत्रा है। इस फार्मूले को अपना कर ही पंडित जी के अंत्योदय लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।

सैकड़ों वर्ष पूर्व महाराजा अग्रसेन ने एक ईंट और एक रुपये दान मांगकर अक्षम एवं कमजोर लोगों को घर बनवाने का काम किया था। देखा जाये तो समाज का कोई भी व्यक्ति एक ईंट और एक रुपये दे सकता है किंतु इससे कितने बड़े महान लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है, यह आसानी से समझा जा सकता है। इसी प्रकार आचार्य विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन चलाया था, जिसके तहत जिन लोगों के पास पर्याप्त एवं आवश्यकता से अधिक जमीन है उनसे थोड़ी-सी भूमि दान मांगकर भूमिहीनों को दी जाये। विनोबा भावे जी का यह आंदोलन काफी प्रसिद्ध हुआ और इस आंदोलन के माध्यम से काफी भूमिहीनों को जमीनें मिलीं।

ऐसा नहीं है कि वर्तमान में समाज सेवा करने वालों की कमी है। आज भी बहुत से लोग चैरिटी हास्पिटल एवं स्कूल चला रहे हैं जहां आम लोगों को कुछ तो फायदा मिल रहा है। यह बात अब प्रमाणित हो चुकी है कि कोई भी कार्य सिर्फ सरकार की बदौलत नहीं हो सकता है। इसके लिए पूरे समाज को आगे आना होगा। ऐसा भी नहीं है कि लोगों के पास पैसे की कमी है। नोटबदली के दौरान देखने को मिला कि लोगों के पास कितना पैसा है?

आम आदमी की तो बात छोड़िये लोग गंगा मैया को भी नोट समर्पित करने लगे थे। समाज में जिनके पास पर्याप्त पैसा है यदि वे थोड़ा-सी भी आम आदमी के कल्याण के लिए सोच लें तो पूरे समाज का कल्याण हो सकता है। कल्पना कीजिए कि यदि समाज में चल रहे चैरिटेबल हास्पिटल एवं स्कूल न हों तो क्या होगा? बड़े-बड़े अस्पताल भी कभी-कभी अपने यहां निःशुल्क जांच सेवाओं का आयोजन करते रहते हैं। बड़े-बड़े अस्पतालों एवं स्कूलों ने सस्ते रेट पर सरकारी जमीन ले रखी है बदले में उन्हें कुछ गरीबों की भी दवाई एवं पढ़ाई का निर्देश है किंतु सब गोल-माल है। व्यक्ति यदि थोड़ा-सा भी धार्मिक एवं आध्यात्मिक तरीके से विचार करे तो आसानी से समझ में आ जायेगा कि कुछ भी साथ जाने वाला नहीं है, सब कुछ यहीं रह जायेगा। साथ में यदि कुछ जायेगा तो उसके द्वारा किये गये परोपकारी कार्य, उसके सत्कर्म यानी कि यदि वह धरती पर ही नर सेवा का संकल्प ले ले तो नारायण सेवा स्वतः हो जायगी यानी कि नर सेवा से ही नारायण भी प्रसन्न होते हैं। नर सेवा हिन्दुस्तान में इसलिए भी संभव है कि लोगों में बचत करने की मानसिकता है और लोगों का स्वभाव धार्मिक होने के कारण दान-पुण्य से लोग पीछे नहीं

हटते हैं।

हिन्दुस्तान में ऐसे लोक सेवकों की कमी नहीं है जिन्होंने नर सेवा को ही नारायण सेवा माना। ऐसे तमाम लोग हैं जिन्होंने विकास की चरम सीमा पर पहुंचकर सभी सुख-सुविधाओं का भोग कर नर सेवा का व्रत लिया क्योंकि एक समय के बाद धन-दौलत एवं ऐशो-आराम की जिन्दगी के प्रति उनके मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न हो गया। ऐसे लोगों की समझ में यह आया कि यही जीवन का सत्य है और मानव, मानव के कार्य आये, इससे बड़ी सेवा कोई हो ही नहीं सकती।

अजीम प्रेम जी, बिल गेट्स जैसे लोग इसी परंपरा के वाहक हैं जिनकी अधिकांश संपत्ति लोक कल्याण में खर्च हो रही है। गुजरात में एक बालक ने 12वीं कक्षा में टॉप करने के बावजूद गृहस्थ जीवन को त्यागकर संत परंपरा के माध्यम से लोक सेवा का रास्ता चुना, निश्चित रूप से उस बालक के अंदर इसकी प्रेरणा ऊपर वाले की कृपा से ही आई होगी। शायद ईश्वर उस बालक से इसी मार्ग के द्वारा लोक कल्याण के कार्य करवाना चाहता है।

प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी ऋषियों-मुनियों की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए निरंतर लोक कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होते जा रहे हैं। उन्होंने अमीरों से अपील की है कि यदि वे सब्सिडी का लाभ लेना छोड़ दें तो गरीबों का कल्याण हो सकता है। इसी तर्ज पर हिन्दुस्तान में गरीब महिलाओं को उज्ज्वला योजना के अंतर्गत फ्री गैस कनेक्शन दिये जा रहे हैं जिससे गरीब माताओं-बहनों को धुएं से मुक्ति मिल रही है। गैस सब्सिडी की तरह अन्य क्षेत्रों में अमीर लोग यदि सब्सिडी का लाभ छोड़ दें तो अंतिम व्यक्ति का

उद्धार करने में काफी मदद मिलेगी।

समाज के अमीर लोगों को यह समझना होगा कि यदि उनमें भी धन-दौलत के प्रति थोड़ा-सा वैराग्य का भाव उत्पन्न हो जाये तो समरस समाज का निर्माण हो सकता है। सरकार चाहती है कि अमीर लोग अधिक से अधिक टैक्स सरकारी खजाने में जमा करें जिससे अधिक से अधिक लोक कल्याण के कार्य किये जा सकें किंतु जिन्हें टैक्स चोरी की आदत पड़ चुकी है वे उसी में लगे पड़े हैं। टैक्स बढ़ाने के लिए सरकार तमाम तरह के प्रयास कर रही है किंतु जिस गति से टैक्स बढ़ना चाहिए बढ़ नहीं रहा है।

अभी भी तमाम ऐसे सेक्टर हैं जिन्हें टैक्स हेतु आधिकारिक रूप से सक्षम नहीं माना गया है किंतु अब सरकार को उस तरफ विचार करना होगा। उदाहरण के तौर पर तमाम सब्जी एवं फल विक्रेता, रेहड़ी-पटरी के दुकानदार, छोले-कुल्छे, खाने-पीने के सामान बेचने वाले, पान-सुपारी बेचने वाले सहित तमाम वर्ग टैक्स के दायरे से बाहर हैं। यदि लोक कल्याण के कार्य में अपनी थोड़ी-सी भी आहुति ये भी दे दें तो दीन-दुखियों का कल्याण हो सकता है। आज नहीं तो कल हर किसी को अपनी भूमिका का निर्वाह करना होगा। हर व्यक्ति को यह मानकर कार्य करना ही होगा कि नर सेवा ही नारायण सेवा है। इसी एक सूत्रा में समाज एवं पूरे विश्व का कल्याण निहित है। इस कार्य में सरकार एवं समाज सभी को अपनी भागीदारी का निर्वहन करना ही होगा।