प्रकृति की प्रगतिशील प्रवृत्ति ही धर्म है


मानो तो ठीक-न मानो तो ठीक
युग सरोकार    जुलाई 2016
प्रकृति, प्रवृत्ति और धर्म तीनों शब्द अलग-अलग प्रतीत होते हैं परंतु तीनों में अद्भुत संबंध है। सूक्ष्म विवेचन से पाया जाता है कि तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। अगर यह कहें कि तीनों के गुणधर्म कहीं न कहीं एक दूसरे पर आश्रित हैं। दरअसल शब्दों का अपना कोई वजूद नहीं होता है। ये हमारे लिए केवल संकेत मात्रा होते हैं। उनकी सार्थकता, महत्ता और अस्तित्व तभी प्रभावी होता है जब ये संकेत रूपी शब्द हमारे समझ की कसौटी और हमारी स्वीकार्यता की कसौटी पर उपयुक्त बैठते हैं। कभी-कभी जिन अर्थों के लिए ये प्रारम्भ में प्रयुक्त किए गए होते हैं। आगे चलकर उससे व्यापक अर्थ में भी प्रयोग किए जाने लगते हैं। कुछ मामलों में तो इनका अर्थ और प्रयोग क्षेत्रा इतना व्यापक हो जाता है कि मूल अर्थ (यानी प्रारम्भ में जिस अर्थ में प्रयोग किए गए थे) से काफी आगे निकलकर किसी और अर्थ के लिए जाने और समझे जाने लगते हैं। प्रकृति, प्रवृत्ति और धर्म के साथ भी ऐसा ही कुछ है जिसकी वजह से ये तीनों शब्द अलग-अलग प्रतीत होते हैं। सबसे ज्यादा अर्थ का विचलन तो धर्म शब्द के साथ हुआ है जो अपने मूल अर्थ से पूर्णतया विचलित होकर अर्थ के एक सीमित क्षेत्रा में संकुचित हो गया है।
मूलतः धर्म का अर्थ संसार के किसी भी वस्तु या व्यक्ति में सदैव विद्यमान उसकी मूल वृत्ति, प्रकृति, प्रवृत्ति, स्वभाव और मूल गुण होता है। इसे उस वस्तु या व्यक्ति का गुणधर्म भी कहते हैं। गहराई से विचार करने पर हम पाते हैं कि इस ब्रह्माण्ड के एक आकाश गंगा में अवस्थित हमारे सौर मण्डल के केन्द्र में हमारा सूर्य विराजमान है। विभिन्न ग्रह उसके चारों तरफ विभिन्न पथों पर अपनी-अपनी गति से अनवरत परिक्रमा कर रहे हैं। इनकी विशेषता यह है कि सूर्य से इनकी दूरी सदैव ही निश्चित रहती है। इनकी घूर्णन और परिक्रमा की गति तथा समय भी निश्चित रहती है। आकर्षण और विकर्षण के सुनिश्चित परिमाण होने की वजह से ये अपने स्थिति की निश्चितता से बंधे हैं। लेशमात्रा भी ये अपने गुणधर्म को परिवर्तित नहीं करते, यदि करें तो सम्पूर्ण सृष्टि का ही विनाश हो जाए। यानी अपने इस धर्म का ये कभी भी किसी भी परिस्थिति में त्याग नहीं करते। इनके इसी धर्मपालन के बदौलत सृष्टि अनवरत रूप से चलती रहती है। ठीक इसी प्रकार इस धरती पर विद्यमान किसी भी पदार्थ का सबसे छोटे स्वरूप परमाणु के संरचना पर हम विचार करें तो सूर्य की भांति ही प्रत्येक परमाणु (चाहे वह किसी भी पदार्थ का परमाणु हो) के केन्द्र में न्यूकिलियस विराजमान होता है, जिसमें प्रोटाॅन और न्यूट्राॅन स्थित रहते हैं और उसके बाहर विभिन्न पथों पर इलेक्ट्राॅन (सूर्य के चारों ओर स्थित विभिन्न ग्रहों की भांति) अनवरत चक्कर लगाते रहते हैं।
प्रोटाॅनों, न्यूट्राॅनों और इलेक्ट्राॅनों की संख्या अलग-अलग हो सकती है परंतु उनकी स्थिति व्यवस्था (यानी धर्म) ठीक वैसे ही निश्चित है जैसे कि सौर मण्डल की अर्थात् छोटा से छोटा परमाणु हो या हमारा विशाल सौर मण्डल, सभी का धर्म यानी कि गुणधर्म और व्यवस्था एक समान ही है। शायद इसीलिए हमारे शास्त्रों में कहा गया है ‘‘यत्पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’’।
प्रकृति का अर्थ भी अति व्यापक है। इसकी व्यापकता इतनी वृहद् है कि ‘‘प्रकृति ही ईश्वर है’’ का भाव उदित होता है और ‘‘प्रकृति की प्रवृत्ति ही धर्म यानी गुणधर्म है’’ का अर्थ समझा जाता है अर्थात्
प्रकृति इस सृष्टि में विद्यमान जैव-अजैव सभी पदार्थों में विद्यमान उनकी प्रवृत्ति के गुणधर्म का द्योतक है। दूसरे शब्दों में प्रकृति प्रवृत्ति का नाम है और तीसरे शब्दों में यही धर्म है।
अब प्रकृति की प्रवृत्ति पर विचार करें तो प्रकृति की प्रवृत्ति (प्रकृति का गुणधर्म) केवल और केवल प्रगति है जो कि ब्रह्माण्ड के कण-कण में अपने-अपने गुणधर्म के अनुरूप विकास पथ पर अग्रसर है। स्थायित्व किसी में नहीं है लेकिन स्थायित्व की अभिलाषा प्रत्येक कण, परमाणु, अणु, पदार्थ, वस्तु, सूक्ष्म जीव से लेकर विशाल जीवों और बुद्धिमान मनुष्यों तक सभी में मूल रूप से है तथा स्थायित्व हेतु सभी प्रगति पथ पर अहर्निश गतिमान हैं। इस प्रकार प्रकृति प्रगति है। प्रकृति का प्रगति पथ पर अग्रसर होना ही धर्म है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रकृति है। प्रकृति अपने सुनिश्चित नियमों के अनुसार चलती है। यह प्रकृति की प्रवृत्ति का गुणधर्म है। अतः धर्म सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है जो कण-कण में विद्यमान है। सामान्य अर्थ में धर्म एक प्राकृतिक पद्धति है। मनुष्य एक बुद्धिजीवी प्राणी है। इसने प्रकृति के इन गुणधर्मों का विशुद्ध अवलोकन किया और इसके अनुसार ही अपने जीवन के क्रिया-कलापों को सजाया यानी प्रकृति के अनुरूप अपने जीवन को ढालने का प्रयास किया। कालांतर में उसकी जीवन जीने की यह पद्धति ही एक निश्चित पद्धति बन गई। यही पद्धति उसके लिए धर्म बन गया और इस धर्म का अर्थ संकुचित होकर जीवन पद्धति बन गया। अलग-अलग समुदायों ने अलग-अलग पद्धतियां बनायीं। इस प्रकार विभिन्न धर्म अस्तित्व में आए और प्रकृति के मूल गुणधर्म से अलग समझे जाने लगे। जबकि लगभग सभी धर्मों का मूल स्वरूप लगभग एक समान ही रहा।
सभी धर्मों में माना गया कि धर्म ज्ञान, विज्ञान, शक्ति, अद्वैत, विकास, प्रगति, अनुशासन, साधना, उपासना, भक्ति,
श्रद्धा, योग, अहिंसा, प्रेम, दया, करुणा, मैत्राी, सहयोग, क्षमा, जीवन, भोग, त्याग, कर्तव्य, पुरुषार्थ, कर्म, विचार, सम्पन्नता, नैतिकता, जीवन आदर्श आदि है।
धर्म संकुचित होता गया और लोग रूढ़ियों में बंधते चले गए। अलग-अलग सम्प्रदाय बनते चले गए परंतु एक धर्म जो शायद सृष्टि निर्माण के समय से ही अस्तित्व में आया वह है सनातन धर्म। सनातन का अर्थ ही है शाश्वत। यानी अनादि काल से जिसका अस्तित्व हो और जिसका कभी क्षय ना हो। यही सनातन धर्म आगे चलकर हिन्दू धर्म के रूप में स्थापित हुआ।
वास्तव में सनातन धर्म का मूल प्रकृति पूजा है जिसमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, धरती, पहाड़, पठार, नदी, नाले, समुद्र, पेड़-पौधे, पशु आदि की पूजा का प्रचलन देवी-देवताओं के समतुल्य मानकर किया जाता है यानी प्रकृति के सर्वाधिक सन्निकट है यह हिन्दू धर्म। इसकी अवधारणा है प्रकृति के अनुरूप विकास और प्रगति ही वास्तविक धर्म और श्रद्धा है जो जितना ही प्रकृति के निकट रहकर उसके नियमों का पालन करता है वह उतना ही धार्मिक है और अध्यात्म के करीब अग्रसर होगा। प्रकृति के विरुद्ध जाकर किया गया कोई भी प्रयास विनाश पथ की ओर ले जाएगा।
हमें इस सनातन धर्म के नियमों और अनुशासन से शिक्षा मिलती है कि असल विकास वह है जिसमें प्रकृति का क्षय कदापि न हो जबकि आज की प्रगति के लगभग अधिकांश क्रिया-कलाप प्रकृति के नियमों के विरुद्ध हैं। परिणाम हमारे सामने है। आज का पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, जल संकट, भयानक असाध्य बिमारियों आदि के विकराल दैत्य से हमारा ही अस्तित्व खतरे में आ गया है। हम निदान के उपाय ढूंढ़ रहे हैं। पूरा विश्व  चिंतन  में लगा है परंतु कोई उपाय नजर नहीं आ रहा। उपाय बस एक ही है प्रकृति के सन्निकट रहकर उसके अनुरूप ही विकास पथ अपनाए जाएं जिसकी अवधारणा एकमात्रा हिन्दू सनातन धर्म में ही निहित है।