प्रकृति से दूरी ही प्रदूषण की मुख्य वजह


पर्यावरण एवं प्रदूषण को लेकर पूरे देश में चर्चा जोरों पर है। राजधानी दिल्ली सहित देश के सभी छोटे-बड़े शहर प्रदूषण की चपेट में आ चुके हैं। राजधानी दिल्ली की बात की जाये तो उसकी गणना दुनिया के अति प्रदूषित शहरों में होने लगी है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट सहित तमाम एजेंसियां काफी चिंतित भी हैं। पूरा प्रशासनिक तंत्रा इस समस्या से निजात पाने के लिए प्रयासरत हैं किंतु वे सारे प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहे हैं।

ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर इस समस्या का समाधान क्या है? तमाम पर्यावरणविदों सहित देश के अधिकांश नागरिकों का मानना है कि प्रकृति से दूर होना ही पर्यावरण प्रदूषित होने का सबसे प्रमुख कारण है। मानव जीवन के अस्तित्व के लिए प्रकृति द्वारा दिये गये पंच तत्व- जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी और आकाश वर्तमान समय में या तो शोषित हो रहे हैं या प्रदूषित। यह बहुत ही गहन चिंता का विषय है। वैसे भी प्रकृति के नियमों के अनुसार व्यक्ति अपने जीवन एवं अस्तित्व के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उचित इस्तेमाल तो करे किंतु उसका दोहन न करे। गौरतलब है कि प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल एवं दोहन में जमीन-आसमान का फर्क है।

पर्यावरण एवं प्रदूषण की चिंता पूरे विश्व स्तर पर हो रही है किंतु उस पर जिस युद्ध स्तर पर प्रयास की आवश्यकता है, उतना नहीं हो पा रहा है किंतु अब यही उचित समय है कि पर्यावरण की रक्षा के लिए विश्व की शक्तियां गहन चिंतन करें अन्यथा मानव अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जयेगा। मानव जीवन के अस्तित्व के लिए प्रकृति

द्वारा प्रदत्त सभी तत्वों के बारे में अलग-अलग चिंतन कर सकते हैं किंतु अभी हम सिर्फ वायु प्रदूषण की ही चर्चा करेंगे। वायु प्रदूषण के कारणों, उसके निवारण एवं उसके मापदंड की चर्चा इस समय अति आवश्यक है। आधुनिक एवं भौतिकवादी युग में सुरसा के मुंह की तरह आये दिन बढ़ते वाहनों की संख्या, बिना किसी योजना के ऊल-जुलूल तरीके से अनाप-शनाप निर्माण, निरंतर कम होती हरियाली, घरों एवं दफ्तरों में कृत्रिम हवा के लिए आधुनिक संसाधनों का बेतहाशा प्रयोग, फैक्ट्रियों का कूड़ा-कचरा, पर्यावरण को शुद्ध करने वाली वनस्पतियों एवं वृक्षों का अभाव, फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए अत्यधिक रासायनिक खादों एवं कीटनाशक दवाओं का प्रयोग आदि कुछ ऐसे प्रमुख कारण हैं जिनकी वजह से प्रदूषण की रफ्तार और अधिक तेज हो रही है।

राजधानी दिल्ली की बात की जाये तो धौला कुआं, सिविल लाइन सहित कई जगह ऐसे जंगल एवं पार्क हैं जहां ऐसे वृक्षों एवं वनस्पतियों को लगाकर पर्यावरण को शुद्ध करने का प्रयास किया जा सकता है, जिनसे वायु शुद्ध होती है। देखा जाये तो इन जंगलों में अधिक वनस्पतियां कंटीलेदार हैं जबकि सभी प्रकार की वनस्पतियों का समन्वय होना चाहिए। एरेका पाम, नीम का पेड़, सानसेविएरिया ट्रिफासासीटा जियालनिका (सर्प प्लांट), गेर्बेरा (नारंगी),  ग्वारपाठा (अलोविरा), क्रिस्मैस कैक्टस (स्ल्मबर्गरस), रामा तुलसी (ग्रीन), पीपल, आर्किड सहित नौ ऐसे पेड़-पौधे हैं जिन्हें घर के अंदर और बाहर लगाया जा सकता है और इससे पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है क्योंकि ये पेड़-पौधे ऐसे हैं जो कार्बन डाइ ऑक्साइड को ग्रहण करके उसको ऑक्सीजन में बदलने का काम अन्य पेड़-पौधों की अपेक्षा अधिक तेजी से करते हैं।

उपभोक्तावादी संस्कृति में एयर कंडीशन से जिस गति से गर्म हवा बाहर निकलती है उससे पर्यावरण को बहुत अधिक क्षति पहुंचती है। खाना बनाने एवं वाहनों में प्रयुक्त होने वाली गैसों, आये दिन घरों एवं औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे से भी पर्यावरण को काफी नुकसान हो रहा है। कचरों के लिए उचित ढंग से लैंडफिल का न होना, निर्माण के क्षेत्रा में अवैधानिक गतिविधियां, अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा अधिकारों के तहत बूचड़खानों से निकलने वाला मलबा, तेजाब की फैक्ट्रियां आदि तमाम अन्य कारण हैं जिनसे पर्यावरण प्रदूषित हुआ है। यह बताना भी अति आवश्यक है कि शाकाहार को प्रोत्साहित करने वाली संस्थाओं ने जिस प्रकार के आंकड़े मांसाहार का उपयोग करने वालों की तुलना में दिए हैं वह भी प्रदूषण और पर्यावरण के लिए चिंतनीय है जिसको जनजागरण अभियानों के द्वारा कम करने की नितांत आवश्यकता है। कहने का आशय यह है कि शाकाहारी भोजन पकाने में कम ऊष्मा की आवश्यकता होती है जिससे वातावरण में गर्मी कम होती है जबकि मांसाहारी भोजन पकाने में अधिक ऊष्मा की जरूरत होती है जिससे गर्मी अधिक निकलती है। अधिक गर्मी पर्यावरण को प्रदूषित करने का काम अधिक करती है।

वैसे देखा जाये तो प्रदूषण के तमाम कारण हैं, जिन्हें लेखन के माध्यम से एक जगह समाहित कर पाना या उस पर सहमति बना पाना आसान नहीं है किंतु इसके निवारण की तरफ गंभीरता से विचार किया जाये तो धीरे-धीरे इस गंभीर समस्या से निपटा जा सकता है। पर्यावरण की रक्षा के लिए सबसे प्रमुख बात यह है कि जीवन को प्रकृति के करीब लाया जाये। प्राकृतिक नियमों के अनुरूप जीवन जिया जाये, अवैधानिक एवं अनाप-शनाप निर्माण पर रोक लगाई जाये, कॉलोनियों को नियोजित करके उससे निकलने वाले कचरे का निस्तारण किया जाये, शहरों में जनसंख्या दबाव को किसी भी तरह कम किया जाये, कंप्यूटर से निकलने वाले कचरे को जलाने से बचा जाये, जो सामान गलते नहीं हैं, जैसे पोलिथीन, प्लास्टिक के बर्तन, गिलास आदि, इन सामानों का प्रयोग वर्जित किया जाना चाहिए।

देश के तमाम हिस्सों में सरकार ने पोलिथीन के प्रयोग पर रोक लगा रखी है किंतु व्यावहारिक धरातल पर उसका अनुपालन नहीं हो पा रहा है। कागज एवं मिट्टी के सामान आसानी से गल जाते हैं। यदि कागज एवं मिट्टी के सामानों का प्रयोग दैनिक जीवन में अधिक किया जाये तो काफी हद तक पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जिन सामानों का प्रयोग होने के बाद भी उनका रिसायक्लिंग चक्र चलता रहता है और उनका प्रयोग बार-बार होता रहता है तो ऐसे सामानों को बढ़ावा दिये जाने की आवश्यकता है।

पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स, जैसे- डीजल, पेट्रोल, मिट्टी का तेल, तारकोल आदि सामानों के अधिकाधिक प्रयोग से भी पर्यावरण को क्षति पहुंचती है। उदाहरण के तौर पर पहले पूजा-पाठ के कार्यों में घी का या वानस्पतिक तेलों का या प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से बनाई गई हवन सामग्रियों का प्रयोग अधिक मात्रा में होता था, क्योंकि इन सामग्रियों के द्वारा लाभ अधिक और हानि कम हुआ करती थी। इसके उपरांत व्यापक तौर पर पर्यावरण शुद्ध हो जाया करता था। पहले लोग काजल बनाते थे और यही काजल बच्चों की आंखों में लगाया जाता था जिससे वृद्धावस्था तक लोगों की आंखों की रोशनी बनी रहती थी। पूजा-पाठ में प्रयोग की जाने वाली हवन सामग्री से पर्यावरण शुद्ध होता है, यह बात वैज्ञानिकों द्वारा प्रमाणित की जा चुकी है।

देश के तमाम शहरों में यदि पर्यावरण लेबल की बात की जाये तो अलग-अलग जगह विभिन्न लेवल हो सकता है। किस जगह का क्या लेबल हो, इस बात का महत्व तभी है जब पर्यावरण को शुद्ध करने के लिए ठोस प्रयास किये जायें। इस संबंध में यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो ज्ञात होता है कि व्यक्ति प्रकृति के करीब जितना अधिक होगा उसका जीवन उतना ही शुद्ध एवं पवित्रा होगा।

आज भी अधिकांश लोगों का यही मानना है कि ग्रामीण जीवन की तुलना में शहरी जीवन में बीमारियों ने अधिक डेरा डाला है। इस बात में काफी हद तक सत्यता भी है। शहरों में जब लोग बीमार होते हैं तो काफी लोग स्वास्थ्य लाभ के लिए ग्रामीण एवं पर्वतीय क्षेत्रों में चले जाते हैं क्योंकि वहां पानी, हवा, सब्जियां एवं अन्य खाद्य सामग्री अपेक्षाकृत शुद्ध मिलती है।

हालांकि, स्वास्थ्य को लेकर शहरी क्षेत्रों में लोगों में काफी जागरूकता आई है, लोग स्वास्थ्य के प्रति काफी सचेत होने लगे हैं। लोगों की समझ में यह अच्छी तरह आने लगा है कि देर से सोना एवं देर से जागना स्वास्थ्य के लिए हानिकारण है। अब लोग शहरों में भी प्रातः जल्दी उठकर योग एवं व्यायाम के लिए पार्कों में जाने लगे हैं। शादी या किसी अन्य कार्यक्रम में जाने पर लोग बाहर के खाने आदि से परहेज करने लगे हैं। ये सब बातें लिखने का आशय सिर्फ इस बात से है कि लोग प्रकृति की शरण में जितना अधिक जायेंगे, उतना ही स्वस्थ एवं प्रसन्न होंगे।

राजधानी दिल्ली में दीपावली से पहले सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पटाखों पर बैन लगा दिया गया। इस बैन से ध्वनि प्रदूषण में काफी कमी आई थी। राजधानी दिल्ली में पर्यावरण की रक्षा के लिए आड-ईवन का प्रयोग किया गया था, उसका भी असर देखने को मिला था किंतु आड-ईवन का फार्मूला हमेशा लागू करने के लिए एक बेहतरीन पब्लिक परिवहन सिस्टम की आवश्यकता है।

राजधानी दिल्ली की पब्लिक परिवहन व्यवस्था बेहतरीन न होने के कारण लोग निजी वाहनों का प्रयोग अधिक करते हैं। निजी वाहनों के अधिक प्रयोग के कारण दिल्ली की आबोहवा प्रदूषित हो जाती है जिसका असर आम लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। परिवहन की दृष्टि से मेट्रो की यात्रा सुविधाजनक है किंतु वह इतनी महंगी हो चुकी है कि उससे कम पैसे में लोग बाईक का इस्तेमाल कर लेते हैं। वैसे भी पब्लिक परिवहन व्यवस्था का उपयोग अधिकांशतः ऐसे लोग ही करते हैं जो आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं। ऐसे में जब पब्लिक परिवहन व्यवस्था ही महंगी एवं असुविधाजनक होगी तो लोग उससे दूरी बनायेंगे ही।

अभी हाल ही में छठ पूजा के दो-चार दिन पहले यह फरमान जारी किया गया कि राजधानी दिल्ली में छठ पूजा घाटों पर जनरेटर नहीं चलेंगे, उस समय पूरी दिल्ली में यह चर्चा का विषय बन गया था कि यदि यही करना था तो क्या इस तरह का फरमान पहले नहीं सुनाया जा सकता था जिससे छठ पूजा समितियों एवं आयोजकों को जनरेटर का विकल्प तलाशने में समय मिल जाता। इसके अतिरिक्त इस पूरे प्रकरण में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आपातकाल में यदि बिजली किसी कारणवश बाधित हो जाये तो उस स्थिति से निपटने के लिए क्या व्यवस्था की गयी थी? यह सब लिखने का अभिप्राय यह है कि पर्यावरण की रक्षा में जो भी एजेंसियां कार्यरत हैं, उन्हें हमेशा तत्पर रहना होगा। आनन-फानन में कोई आदेश पारित कर देने से लोगों को ऐसा लगता है कि अव्यावहारिक तरीका अपनाया जा रहा ह। इस संबंध में एक बात पर और ध्यान देना होगा कि पर्यावरण की रक्षा के लिए सरकारी तंत्रा की तरफ से जो भी आदेश आते हैं क्या वे मात्रा तात्कालिक हैं या लंबे समय तक कारगर होंगे। इस संबंध में जहां तक मेरा मानना है कि पर्यावरण के मामले में जो कुछ भी हो वह वैज्ञानिक शोध पर आधारित होना चाहिए।