वैभववादी और बाजारवादी संस्कृति में देश में फल-फूलों से लदी अपार संपदा तो सभी राजनीतिज्ञों को दिखाई पड़ रही है, लेकिन कुश-कंटकों, पथरीली राहों पर चलते हुए नुकीले पत्थरों से आम आदमी के लहूलुहान पांवों पर उनकी नज़र नहीं पड़ रही है। यह उन्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है कि संपूर्ण देश में दो चीजें उच्चतम स्थान पर हैं… वे चीजें हैं- भ्रष्टाचार और महंगाई। इस देश में जो वैभववादी चकाचैंध में देश का नया इतिहास गढ़े जाने का करिश्मा देख रहे हैं, उन्हें वह पसरा हुआ अंधेरा नहीं दिखाई पड़ रहा है जहां बेबसी, वेदना, पीड़ा, कंुठा, निराशा और हताशा है।
जो निराशा-हताशा में भ्रष्टाचार और महंगाई के कारण गीली आंखें लिये लहूलुहान पैरों से जिन्दगी की पगडंडियों पर चल रहे हैं, उनकी ओर शहरों-महानगरों की चैड़ी सड़कों पर बसों, कारों, स्कूटरों और मेट्रो ट्रेनों से चलने वाले लोग नहीं देखते हैं और न कभी देख पाएंगे। प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण आजादी के बाद उनके देखे सपने और आकांक्षाएं सभी कांच की तरह चूर-चूर हो गये हैं। वे ही कांच अब उनकी आंखों में चुभ भी रहे हैं। वे हैं भारत के गरीब, किसान, मजदूर, पीड़ित-व्यथित आम जनता।
मैं किसी पार्टी और राजनीति की बात इस संपादकीय में नहीं कर रहा हूं, न धर्म और अध्यात्म की भूलभुलैया में आपको ले जाना चाहता हूं। जब बढ़ी महंगाई और भ्रष्टाचार के अंगदी पांव के कारण लोगों का जीना मुश्किल हो गया है, तो उस वक्त न राजनीतिक पार्टी की बात किसी पत्रकार को करनी चाहिए और न धर्म-अध्यात्म की। दक्षिण और वाम की राजनीति का नाम नहीं लिया जा सकता। बस, एक सवाल दस्तक देता है कि आदमी रोटी, कपड़ा मकान और इलाज चाहता है। आसमान में सतरंगी बादल पर चढ़ कर जो लोग सत्ता की बागडोर थामे हुए हैं, उन्हें नीचे की ज़मीन नहीं दिखाई पड़ रही है। करोड़ों आंखों का घोटाला सरकारी मंत्री, उद्योगपति और यहां तक कि प्रधानमंत्री विवादों के जाल में उलझे हुए और आप कह रहे हैं कि देश का शासन ठीक चल रहा है। जिन्होंने इमर्जेन्सी देखी होगी, वे जानते होंगे कि उन्हीं परिस्थितियों में व्यापक जनान्दोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में फूट पड़ा था छात्रों के साथ-साथ वे सभी लोग उस आंदोलन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भाग ले रहे थे, जो भ्रष्टाचार और महंगाई की जंजीर से मुक्ति चाह रहे थे। सरकारी प्रताड़ना-अंकुश एवं परिस्थितिजन्य विषमताओं के बावजूद भावनात्मकता से उपजा आंदोलनात्मक आवेग नहीं रुका। औरत, मर्द, बूढ़े, बच्चे सभी लोग इस आंदोलन में अपनी मुट्ठियां ताने सरकार का विरोध कर रहे थे। यह विरोध राजनीतिक नहीं था, बल्कि अपनी विवाई से परेशान लोग आंदोलन कर रहे थे। लेकिन सरकार पीर पराई जानने-समझने के लिए तैयार ही नहीं थी। वक्त अपने आप को फिर दुहरा रहा है। जनता अपनी फटी बिवाई लेकर घूम रही है, लेकिन सरकार जनता की पीर को पराई समझ रही है, आम जन का वह दर्द समझ ही नहीं पा रही है। जनता के दुख-दर्द को अधोलिखित पंक्तियों में व्यक्त किया जा सकता है-
दुख बढ़ता जा रहा अपार
कौन देखे आंसू की धार।
उच्च शिखर पर सत्ता में ज्यों बैठे
उन्हें न मालूम है महंगाई,
घूम रहे मरहम लेकर वे
ज़ख्म नहीं पड़ता दिखलाई।
दुख बढ़ता जा रहा अपार
कौन देखे आंसू की धार।
भ्रष्टाचार के पूए खाने
उनको क्या है अब परवाह,
नए-नए छल-छद्मों से
काम बनाने की बसे चाह।
दुख बढ़ता जा रहा अपार
कौन देखे आंसू की धार।
अमरेन्द्र कुमार