साहित्यकारों का शताब्दी वर्ष


मारी हथेली पर जो वर्ष पसरा हुआ है, उसमें हिन्दी और उर्दू के कई साहित्यकारों के चेहरे जुगनू की तरह चमकते-बुझते नजर आ रहे हैं। वे साहित्यकार आसमान के सितारे बन गये हैं और हमारी यादों में वे अपने जन्म के सौवें साल में फिर रौशन हो रहे हैं। वे साहित्यकार हैं- अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और फैज़ अहमद फैज़। हम इस संपादकीय में हिन्दी के कवि-कथाकार-पत्रकार अज्ञेय और उर्दू के शायर-पत्रकार फैज़ अहमद फैज़ की चर्चा करेंगे।

अज्ञेय का पूरा नाम सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय था। वे कवि, कथाकार और पत्रकार थे और हर क्षेत्र में अपनी कौंध से उन्होंने लोगों की आंखों में आश्चर्य की चमक भर दी। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे प्रयोगवादी थे। कविता के क्षेत्र में तो उन्होंने प्रयोग किया ही है, साहित्य की कई विधाओं में उनका प्रयोग अलग से रेखांकित करने लायक है। नयी कविता का प्रतिमान अज्ञेय में परिलक्षित होता है और प्रयोगवादी कविता का रूप ही उन्होंने ‘तारसप्तक’ के माध्यम से स्थापित किया था। मैं अज्ञेय के कवि रूप पर चर्चा करने के क्रम में उनकी  महत्वपूर्ण कविता ‘सोन मछली’ की चर्चा करना चाहूंगा। इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता है कि उन्होंने शब्दों के माध्यम से चित्र उकेर दिया है और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि शब्द कम खर्च हुए हैं। बिम्ब की जीवंतता और रसोद्रेक दोनों इस कविता में मौजूद है। इस कविता में कांच के पीछे हांफती मछली, रूप-तृषा और कांच के पीछे की मछली की जिजीविषा ये तीनों चीजें शब्दों के माध्यम से बिम्ब प्रस्तुत करती हैं। उपन्यास तो उन्होंने कई लिखे हैं, लेकिन ‘शेखर एक जीवनी’ हिन्दी का पहला आत्मकथात्मक उपन्यास कहा जा सकता है। इसमें भी उनका प्रयोगधर्मी रूप प्रकट होता है। पत्रकार के रूप में भी उन्होंने ‘दिनमान’ के संपादक के रूप में हिन्दी पत्रकारिता को एक नयी दिशा दी थी। फिर ‘नवभारत टाइम्स’ के जब वे संपादक हुए तो व्यंग्य स्तम्भ चलाया ‘कुल्हड़ में हुल्लड़’। अज्ञेय के प्रयोग में पाश्चात्य का रंग भी कहीं-कहीं मिलता है। अज्ञेय ने हमेशा परम्पराओं के खिलाफ नकार की भंगिमा अख्तियार कर कविता और कथा-साहित्य के क्षेत्र में एक नया प्रतिमान स्थापित किया है। पुराने प्रतीकों, उपमानों और बिम्बों के दायरे से हटकर नये और टटके बिम्बों से कविता में एक शक्ति-स्फूर्ति भर दी है।

उर्दू के शायर फैज़ अहमद फैज़ ने 1935 में एम.ए. किया और उसके बाद वे अंग्रेजी भाषा के प्राध्यापक हुए। लाहौर स्थित हैली काॅलेज में वे अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। फैज़ की शायरी में प्यार की पुकार है। यह प्यार उनकी शायरी में आत्मा से निकला था, क्योंकि उनके दिल के सागर में प्यार की कश्ती चलती थी। उन्हें अगर अपनी महबूबा प्रिय थी, तो आम जिन्दगी से मुहब्बत भी प्रिय थी। इन्हीं दोनों के लिए वे अपनी पूरी जिन्दगी नयी धुनों में नये नग़मे गाते रहे। वे अपने नग़मों से दुनिया की निराशा कम करना चाहते थे। उर्दू शायरी में अपनी रचनात्मकता और महत्वपूर्ण योगदान के लिए एक सौ साल ही नहीं, एक हजार वर्ष तक वे जाने जाएंगे। उन्होंने अपने लफ्जों से उर्दू शायरी में जो जादुई असर पैदा किया है, वह लिए की धड़कनों में हमेशा-हमेशा के लिए समा गया है। इसीलिए फैज़ अहमद फैज़ उर्दू शायरी में एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उन्होंने अपनी शायरी में जिस आशा का संचार किया है, उसकी यह एक मिसाल है-

दर्द थक जाएगा, ग़म न कर, ग़म न कर

याद लौट आएगी, दिल ठहर जाएगा,

ज़ख्म भर जाएगा, ग़म न कर, ग़म न कर।

अमरेन्द्र कुमार