समाज सेवा के नाम पर राजनीति में आने का दौर बहुत तेजी से चल रहा है किंतु यदि वास्तविक रूप से देखा जाये तो अधिकांश लोग समाज सेवा की आड़ में अपनी राजनैतिक इच्छाओं को परवान चढ़ाना चाहते हैं। यह बात अलग है कि कुछ को कामयाबी मिल पाती है तो कुछ को नहीं मिल पाती। ऐसा भी नहीं है कि समाज सेवा लोग सिर्फ राजनीति के माध्यम से ही करने आ रहे हैं बल्कि समाज सेवा के लिए धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के नाम से भी सेवा का काम बहुत तेज चल रहा है। इस प्रकार की संस्थाओं को सेवाभाव के कार्य में इसलिए आना भी जरूरी हो गया है, क्योंकि सरकार लोगों को पूरी तरह सामाजिक सुरक्षा दे पाने में कामयाब नहीं हो पा रही है। इसी कमी को पूरा करने के लिए आज आवश्यकता इस बात की है कि सामाजिक सेवा के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए उद्यमियों को आगे आना होगा।
स्वतंत्रता आंदोलन के पहले और उसके बाद तक तत्कालीन उद्योपतियों ने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह बखूबी किया है। टाटा, बिड़ला, डालमिया, गोयनका, मोदी जैसे उद्यमियों ने अपनी कमाई का एक अच्छा हिस्सा समाज सेवा को समर्पित किया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अस्पताल, धर्मशाला, एजूकेशन संस्थाएं, विधवा आश्रम आदि तरह के कार्यों को बखूबी किया है। उदाहरण के तौर पर जब भारत सरकार के पास कोई खेल अकादमी नहीं थी, तब भी टाटा की खेल अकादमी थी। इसे कहते हैं समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का एहसास। इस काम के लिए धर्मगुरुओं, साधु-संतों एवं समाज के प्रतिष्ठित लोगों को भी आगे आना होगा।
जैन संत मुनियों ने सामाजिक सेवा के क्षेत्र में लोगों को काम करने के लिए प्रेरित किया है। मुनियों की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से तमाम चैरिटेबल हास्पिटल एवं अन्य सेवा प्रकल्प संचालित किये जा रहे हैं। समाज का काम यदि समाज के पैसे से होता है तो उससे एक सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि उद्यमियों में सेवा भाव तो होना ही चाहिए। उद्यमी सामाजिक सेवा के साथ-साथ अपनी आजीविका या खर्चों के लिए मात्र आटे में नमक की तरह अर्जन करें यानी सिर्फ पैसा कमाना ही मुख्य उद्देश्य न रखें।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया जाये तो सामाजिक सुरक्षा के मामले में सरकारें कमजोर हैं, दिशाहीन हैं। योजनाएं फेल हो रही हैं। जनता तक नहीं जा पा रही हैं। आज की परिस्थितियों से यदि आजादी के पहले की तुलना की जाये तो कहा जा सकता है कि उस समय सरकारें तो थी नहीं किंतु उद्योगपतियों ने अपने विकास के साथ देश को भी बनाने का काम बखूबी किया। उद्योगपतियों ने लोगों की भावनाओं को जगाने का कार्य किया। स्कूल, हास्पिटल, काॅलेज खुलवाये, पानी के प्याऊ लगवाये।
किंतु आजादी के बाद जो उद्योगपति हुए उन्होंने सामाजिक उत्तरदायित्वों को निभाने की दिशा में ध्यान नहीं दिया, इसीलिए सरकार को काॅरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी (सीएसआर) का कानून लाना पड़ा। इस कानून के तहत उद्योगपतियों को अर्थोपार्जन में छूट तो मिलती है मगर उस छूट के पैसे को सामाजिक कार्यों में लगाना पड़ता है। उद्योगपति छूट का पैसा तो ले लेते हैं किंतु समाजसेवा में खर्च नहीं कर पाते हैं यदि खर्च भी करते हैं तो बहुत कम कर पाते हैं। बहुत सी कंपनियां सीएसआर के पैसे को खर्च करने के लिए अपनी स्वयं एनजीओ बना रही हैं।
आजादी के बाद अजीम प्रेम जी जैसे भी उद्योगपति हुए हैं जिन्होंने अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक कार्यों में खर्च किया है। ओएनजीसी, टीसीएस, इनफोसिस, आईसीआईसीआई बैंक, भारती एयरटेल, एक्सिस बैंक, एचडीएफसी बैंक, हिन्दुस्तान जिंक, एचडीएफसी, भेल, कैरन इंडिया, आइडिया, एस्सार स्टील, आलोक इंडस्ट्रीज, माइक्रोमैक्स, डीएलएफ इनफोसिटी सहित तमाम ऐसी नामी कंपनियां हैं जिन्होंने अपना सीएसआर का फंड खर्च नहीं किया है। यदि किया भी है तो पूरी तरह नहीं खर्च किया है। हालांकि, इस मामले में सरकार बहुत सख्त दिख रही है।
रिलायंस इंडस्ट्रीज, एनटीपीसी, आईटीसी, टाटा स्टील, विप्रो, इंडियन आॅयल, एल एण्ड टी, हिन्दुस्तान यूनिलीवर, बजाज आटो, एम एण्ड एम, मारूती सुजुकी, सेल, जी इन्टरटेनमेन्ट जैसी तमाम ऐसी नामी कंपनियां भी हैं जिन्होंने अपना पूरा सीएसआर का फंड खर्च किया है। सिर्फ फंड ही नहीं खर्च किया है बल्कि अपनी सीमा से अधिक भी खर्च किया है।
यदि उद्यमी सामाजिक कार्यों में अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं तो उसका समाज में बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। समाज की समास्याओं का निदान यदि सामाजिक स्तर पर होने लगे तो इसे एक बहुत ही सुखद स्थिति कहा जा सकता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने चरखा कार्यक्रम इसलिए प्रारंभ किया था कि इससे समाज में जागरूकता आयेगी और लोग अपनी जिम्मेदारियां निभाने के लिए आगे आयेंगे। वास्तव में देखा जाये तो समाज को जागरूक करने का यह एक बेहतरीन कार्यक्रम है।
भारत-चीन युद्ध के समय स्व. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देशवासियों से आह्वान किया था कि यदि लोग सप्ताह में एक दिन व्रत रखें तो उससे जो अन्न की बचत होगी, वह सेना के जवानों के काम आयेगी क्योंकि उस समय अपना देश आज की तरह सुदृढ स्थिति में नहीं था। यहां बात सिर्फ यह नहीं है कि एक दिन उपवास से अन्न की बचत होगी, बल्कि प्रमुख बात यह है कि इससे समाज में एक बहुत बड़ा संदेश जायेगा। आचार्य विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन चलाकर समाज को इस बात के लिए प्रेरित किया कि जिनके पास अधिक जमीन है, वे अपनी थोड़ी-थोड़ी भूमि ऐसे लोगों को दान में दें, जिनके पास एक दम भी भूमि नहीं है। देखा जाये तो इस बात में कितना बड़ा संदेश छिपा हुआ है।
हालांकि, ऐसा नहीं है कि वर्तमान में उद्योगपति अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह नहीं कर रहे हैं अपितु उसे और अधिक आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। सामाजिक सेवा के भाव को कंपनियों द्वारा लागत और बिक्री के बीच जो खाई है, उसे पाटकर भी अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर एक कमीज यदि सौ रुपये में बन रही है तो उसे सात सौ रुपये तक में बेच लिया जा रहा है। इस गहरी खाई को पाटकर ‘सस्ता माल-उम्दा माल’ के कार्यक्रम को आगे बढ़ाया जा सकता है। इससे समाज का बहुत भला हो सकता है। सरकार को इस तरह के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। कुछ योजनाएं बनाई जानी चाहिए, सस्ती सुविधाएं उपलब्ध करायी जानी चाहिए। इससे न केवल ग्रामीण भारत का उत्थान होगा, बल्कि वहां के लोगों का भी उत्थान होगा। कम मुनाफा कमाकर भी अपना कार्य किया जा सकता है। यदि व्यापार में भी इंसानियत, मानवता, भाईचारा, करुणा एवं दया की भावना का भाव आ जाये तो एक स्वस्थ समाज का निर्माण करने में मदद मिलेगी।
आज देश में तमाम ऐसे मंदिर एवं धर्म स्थल हैं जहां अथाह पैसा चढ़ावे के रूप में आता है। यदि इस पैसे में से एक बड़ा हिस्सा समाज के लिए खर्च होने लगे तो देश में बहुत व्यापक स्तर पर संदेश भी जायेगा और अन्य लोग भी सामाजिक कार्य करने के लिए प्रेरित होंगे। सरकार एक अध्यादेश लाकर धर्मस्थलों को होने वाली आय का अधिकांश हिस्सा स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा एवं अन्य मूलभूत सुविधाओं पर खर्च कर सकती है और करवा सकती है।
आज देश में ऐसे लोगों की तादाद बहुत अधिक है जिनका इलाज चैरिटेबल हास्पिटलों एवं स्वास्थ्य केन्द्रों द्वारा किया जा रहा है। यदि ये चैरिटेबल स्वास्थ्य केन्द्र न होते तो मैं क्या होता? इस बात की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। देश के बहुत से बच्चे चैरिटेबल स्कूलों में ही बढ़ रहे हैं। सरकारी अस्पतालों एवं स्कूलों में सब लोग एडजस्ट नहीं हो सकते हैं जबकि प्राइवेट स्कूल एवं अस्पताल इतने महंगे हैं कि वहां हर कोई जा नहीं सकता। इस मामले में सरकारें यदि पूरी तरह सक्षम नहीं हो पा रही हैं तो इस कमी को पूरा करने के लिए उद्यमियों को ही आगे आना पड़ेगा।
समाज सेवा के नाम पर तमाम स्वयंसेवी संस्थाएं सीएसआर का फंड हड़पने के लिए अपना जाल बिछाये हुए हैं किंतु इसमें से अधिकांश संस्थाएं ऐसी हैं जो दुकानदारी के अलावा कुछ भी नहीं कर रही हैं। सरकार को चाहिए कि वह निगरानी कर ऐसी संस्थाओं को आगे बढ़ाये जो वास्तव में समाज सेवा के भाव से ही कार्य कर रही हैं क्योंकि वर्तमान समाज में समाजसेवी दुकानदारों की कमी नहीं है।
ईसाई धर्म यदि पूरी दुनिया में चुपचाप बढ़ता जा रहा है तो उसका सबसे प्रमुख कारण है उनके सेवा प्रकल्प। ईसाई अपने सेवा प्रकल्पों का संचालन दुर्गम इलाकों में भी कर रहे हैं। ईसाई धर्म में यदि बहुत सारे लोग धर्म परिवर्तित करवा रहे हैं तो उसके पीछे कहा जाता है कि उनका सेवाभाव ही है। इससे एक सबक भी लिया जा सकता है। अतः ऐसे में आज आवश्यकता इस बात की है कि सामाजिक सेवाभाव से ओत-प्रोत उद्यमियों को सामाजिक कार्यों के लिए प्रेरित किया जाये और ऐसे उद्यमियों को स्वतः ही आगे आना चाहिए। इसी में राष्ट्र एवं समाज सभी का कल्याण है।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)
(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के
ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)