हमारे देश में 15 अगस्त और छब्बीस जनवरी दो राष्ट्रीय पर्व हैं। पर्व-त्यौहार में जो उल्लास-उमंग हमारे दिलों में होना चाहिए वही होता है। लेकिन 15 अगस्त या 26 जनवरी अन्य पर्वों से पृथक् इस मायने में है कि इस अवसर पर हम अपने गणतंत्र और अवाम के जीवन के हर्ष-विषाद, उल्लास-टीस, उमंग-उसांस पर भी दृष्टिपात करते हैं। 26 जनवरी को संकल्प लेते हैं कि यह तंत्र हमारे देश के गण के हित के लिए है, लेकिन जब आंखों से भीतर झांकते हैं तो लगता है कि पूरा तंत्र कुछ मुटठी-भर लोगों के लिए है, जो गण के नाम पर भ्रष्टाचार की कोठरी में जश्न मनाते हैं और आपस में सुख-सुविधाओं का आसव मिल-बांट कर पीते हैं। वे अपने श्रीमुख से अपनी गौरव-गाथा सुनाते हैं। सत्ता के ऊंचे सिंहासन पर बैठे राजनेताओं, उद्योगपतियों एवं राजनीति की भ्रष्टाचार-कथा पिछले दिनों अखबारों और इस पत्रिका में भी आयी है, तो मन विषाद से भर जाता है कि क्या हम इसलिए गणतंत्र की दुहाई देते हैं कि आम जनता महंगाई की चककी में पिस-पिस कर कराहती रहे और हम जय गणतंत्र कहते हुए काली कमाई करते रहें। हाशिये पर लोग कितनी दीनता के साथ गरीबी की त्रासदी झेल रहे हैं, इसे नीचे तबके के लोगों में जाकर देखा जा सकता है, बड़े नगरों-महानगरों के पांच सितारा या बड़े होटलों में नहीं। हमारे राजनेता कुछ लोगों की समृद्धि को ही विकास-कार्य कहकर लोगों को छलते हैं। अपनी प्रशंसा में उनके दिये गये भाषणों को सुन कर तुलसीदास की यह पंक्ति मन में कौंध जाती है- ‘आपन करनी भांति बहु बरनी’।
इस महीने 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस का समारोह मनाया जाएगा। हम अपनी लोकतांत्रिक परंपरा की संस्कृति की प्रशंसा में बातें करेंगे और आश्वासन देंगे कि पूरे गण के लिए, जन-मन के लिए यह सरकारी तंत्र समर्पित है। लेकिन यह बात अगर झूठी है, तो इस गणतंत्र के अवसर पर खुशियों की आतीशबाजी छोड़ना भी निरर्थक है। यहां जो शक्तिशाली है, छली है, बाहुबली है और अपनी अकरनी को करनी बता कर वर्णन करता है, गणतंत्र उसी के लिए है। इस देश में अंतिम कतार में बैठी जनता के लिए नहीं, जिसके लिए हमने सपना देखा था कि उसके पेट में रोटी होगी, उसके तन पर उजला धुला वस्त्र फहराएगा, उसके होंठों पर उल्लास के गीत होंगे और गांव की झोंपड़ियों से भी खुशी के गीत उनके कंठ से फूटेंगे। इस गणतंत्र के संबंध में हम तो यही कहेंगे-‘भीनी-भीनी रे बीनी चदरिया’। भारतीय गणतंत्र का एक लक्ष्य यह था कि अंग्रेजों की दासता से हमें मुक्ति मिली है, तो देश का तंत्र पूर्णतः जन-मन के हर्ष-उल्लास के लिए, उनकी सुख-समृद्धि के लिए समर्पित हो, देश आत्मनिर्भर हो, लेकिन अफसोस है कि तंत्र की बागडोर कुछ लोगों के हाथों में है और गण हाशिये पर चला गया है। वे अंधी भोगविलास और सत्ता-लालसा में लिप्त हैं। गणतंत्र की सफलता के लिए यह जरूरी है कि हम स्वयं को जानें, तभी जन-गण को जान पाएंगे। अंग्रेजों ने भारत के इतिहास को उसकी जड़ से काट दिया था। इस गणतंत्रात्मक देश में हमें उस जड़ को पुनः पनपा कर नये इतिहास का निर्माण करना चाहिए था, लेकिन हम तो चैंधिया गये हैं वैभववाद के प्रकाश से, उपभोक्तावाद और बाजार के फ्लड लाइट से, जिसमें देश के मुट्ठीभर लोगों की खिलखिलाहट, थिरकन और पुलकन देख रहे हैं, अंधेरे में आंसू बहाते लोग तो नजर ही नहीं आ रहे हैं। हम जब उपभोक्तावाद की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं को तोड़ते हुए लोकतंत्र की विकृतियों को तार-तार कर देंगे तभी गणतंत्र सुदृढ़ होगा। देश का समस्टि-चित्त तभी उत्फुल्ल होगा। हम देश के प्रफुल्लित समष्टि-चित्त के साथ ही गणतंत्र-पर्व के जश्न में डूबना चाहते हैं और कंठ-कंठ से निःसृत यह स्वर सुनना चाहते हैं – जय गणतंत्र!
….अमरेन्द्र कुमार