दुनियाँ के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश में राजनीतिक दंश का दर्द सिर्फ शब्दों में ढल रहा है। वह दर्द सभी महसूस कर रहे हैं, लेकिन उसका कोई इलाज नजर नहीं आ रहा है। जिस देश में प्रधानमंत्री को यह कहने की जरूरत पड़ जाये कि वे कमजोर प्रधानमंत्री नहीं हैं।… और जब वे अपने ऊपर कमजोर प्रधानमंत्री होने के आरोपों को मीडिया के सामने खंडन करें, तो निश्चय ही राजनीतिक दर्द की अनुभूति यहां की जनता करेगी। क्योंकि कोई कमजोर, बेसहारा, विवश और बेचैन आदमी ही अपने को शक्तिशाली साबित करने के लिए घनघनाते शब्दों का सहारा लेता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी वही किया है। उनके और सोनिया गांधी के संबंधों में बर्फ जम रही है, सत्ता के शीर्ष पर बैठने के बावजूद विश्वास डगमगा रहा है और सहज सांस नहीं प्रत्युत उच्छ्वास ले रहे हैं राजनीतिक वायुमंडल में।
वे भीतरघातों से भी लाचार हैं। इसलिए यह कहने की जरूरत पड़ी कि वे एक कमजोर प्रधानमंत्री नहीं हैं। उनके यह सब कहने में उनके मन का दर्द ढल कर शब्दों से आ रहा है। यह राजनीतिक दर्द शब्दों में ढल कर केवल प्रधानमंत्री द्वारा ही नहीं आ रहा है, बल्कि अन्य राजनेताओं की जुबान से भी वह दर्द निकल कर आ रहा है। इस दर्द का इलाज अभी किसी के पास नहीं है- न बाबा रामदेव के पास और न अन्ना हजारे के पास। इस राजनीतिक दर्द का इलाज वह कर सकता है, जिसके पास क्षमता होगी। इलाज की क्षमता दोनों के पास नहीं है।
इस दर्द का इलाज राजनीति ही कर सकती है और राजनीतिक जिम्मेदारी लेने की सामथ्र्य फिलहाल कहीं नजर नहीं आ रही है। नेतृत्व के लिए अन्ना हजारे आये और अपने बयानों के मकड़जाल में स्वयं ही उलझ गये। विपक्ष भी सबल और सफल नेतृत्व करने में कामयाब नहीं हो पा रहा है। भाजपा एक मजबूत पार्टी है, लेकिन उसमें वह ताकत और कौशल नहीं है। वह कभी अन्ना हजारे के पीछे खड़ी हो जाती है और कभी बाबा रामदेव के पीछे। वह आगे आने और करिश्मा दिखाने की शायद क्षमता ही नहीं रखती है।
भाजपा केवल रामनामी चादर ओढ़ कर उन दोनों के पीछे कीर्तन करती हुई चल रही है। कीर्तन मंडली से राजनीतिक नेतृत्व नहीं होता है। फिर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के नासूर का इलाज करने के लिए अपनी राजनीतिक यौगिक क्रियाओं के साथ बाबा रामदेव आगे आये, तो उनसे कुछ उम्मीद बंधी, लेकिन वे रामलीला मैदान से भाग गये। रामलीला मैदान से ‘सलवार सूट’ पहनकर उनका भागना केवल अभिध में नहीं है, बल्कि उसका लाक्षणिक अर्थ यह है कि वे राजनीतिक नेतृत्व से ही भाग चले।
दोनों का नेतृत्व कुछ ऐसा ही लगा मानों कुछ चिड़ियां बोतल में रखे लोकतंत्र के पेयजल को बिना कुछ किये पीना चाहती हैं और पी नहीं पा रही हैं। वे उस शीतल पेय को तभी पी सकेंगी जब उनमें काग चेष्टा होगी, यानी बोतल में कंकड़ डाल-डालकर कोई कौवा पेयजल को नीचे गिराता है और उसे पी जाता है। यह कौशल किसी में नहीं है- न अन्ना हजारे में और न बाबा रामदेव में। इसीलिए गोविंदाचार्य ने कहा था कि दोनों में से किसी में क्षमता नहीं है। किसी जोकर और कठपुतली से लोकतंत्रका नेतृत्व नहीं होगा, बल्कि जिसके प्राण में जयगान होगा, जिसके स्वर में हुंकार होगी- वही नेतृत्व कर सकता है।
आप याद कीजिए 1974 के आंदोलन को, जिसमें जयप्रकाश नारायण ने अपने स्वर में हुंकार भरकर सारे विपक्ष को अपने पीछे खड़ा कर दिया था और नेतृत्व का झंडा लेकर आगे बढ़ गये थे। उनके पीछे कोटि-कोटि जनता जयकार करती हुई चलने लगी। आज सचमुच नेतृत्व का संकट है। विपक्ष की पार्टियां कपड़े की गुड़िया बनकर रह गयी हैं- लुंजपुंज, दिशाहीन, अकमण्र्य, उलझनों में फंसी हुई और कभी अन्ना की पीछे, और कभी बाबा रामदेव के पीछे! भाई, आगे आओ कोई नेतृत्व-क्षमता लेकर… कोई जेपी बनो!… तो जनता उसके पीछे हो जाये। रामलीला मैदान से भागने से और अपने बयानों में उलझने से तो काम नहीं चलेगा।