रूपये में जिस प्रकार आये दिन लगातार गिरावट आती जा रही है उससे साबित हो रहा है कि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। रुपयेमें गिरावट कब रूकेगी, इस बात की भी कोई संभावना दिख नहीं रही है। आज पूरा देश यह सोचने के लिए विवश हो रहा है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? किसी भी संकट को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का संकट बताने वाली यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह सहित अर्थशात्रियों की एक लंब श्रंृखला है, किंतु किसी भी अर्थशास्त्री की समझ में यह नहीं आ रहा है कि आखिर इस संकट से कैसे निपटा जाये? इस बद से बदतर आर्थिक हालातों से निपटने में सरकार भले ही नाकाम साबित हो रही है, किंतु सरकार इस बात से भी परहेज कर रही है कि उन कारणों को जनता के समक्ष न रखा जाये, जिनसे इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न हुई है।
आखिर देश को यह पता चलना ही चाहिए कि इस प्रकार के हालात क्यों पैदा हुए? पहले तो जब भी अर्थव्यवस्था थोड़ी बहुत डांवाडोल होती थी तो यही तर्क दिया जाता था कि वैश्विक कारणों से ऐसा हो रहा है, किंतु अब ऐसा कहकर भी देशवासियों को बरगलाया नहीं जा सकता। क्योंकि अमेरिका सहित तमाम विकसित देशों की आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत है। यदि अपने घरेलु कारणों से अर्थव्यवस्था खराब हुई है तो भी सरकार को यह बताने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि किसी भी समस्या के वास्तविक कारणों की खोज कर उसका समाधान किये बिना स्थायी निराकरण नहीं किया जा सकता है। आज पूरे देश में सर्वत्र एक बात कही जा रही है कि भारत के प्रति निवेशकों का विश्वास घटा है। निवेशकों की भारत में निवेश के प्रति अरुचि के चाहे जो भी कारण हों किंतु यूपीए सरकार ने इसका भी ठीकरा विपक्ष के माथे फोड़ दिया है।
प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने स्वयं कहा है कि विपक्ष के कारण भारतीय संसद ठीक से चल नहीं पाई है। इसका संदेश भारत सहित पूरी दुनिया में अच्छा नहीं गया है। इसी कारण भारत के प्रति निवेशकों का रुझान कम हुआ है। विदेशी निवेशकों की बात तो अलग है, देशी निवेशक भी अपने ही देश में पूंजी का निवेश करने से कतराने लगे हैं। पिछले कुछ वर्षों में वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री की ओर से अर्थव्यवस्था की गिरती सेहत को संभालने के लिए जितने भी आश्वासन दिये गये हैं सब खोखले साबित हुए हैं।
दरअसल, देखा जाये तो सरकार पर भरोसा करने का कोई कारण भी नहीं दिख रहा है क्योंकि जब राजकोषीय घाटे के साथ चालू खाते का घाटा बेकाबू होता दिख रहा था। तब सवा लाख करोड़ की सब्सिडी वाले खाद्य सुरक्षा कानून को लाया गया। यह कानून एक तरह के आत्मघात के अलावा कुछ नहीं है। इस आत्मघात के लिए केंद्रीय शासन के नीति-नियंताओं के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी बराबर की जिम्मेदार हैं। अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित होने वला यह कानून सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों की जिद का परिणाम है।
खाद्य सुरक्षा कानून मात्र इसलिए लाया जा रहा है, जिससे कांग्रेस पार्टी दोबारा सत्ता में आ सके। भविष्य में इसके क्या परिणाम होंगे इससे उसका कोई लेना-देना नहीं है। दरअसल, कांग्रेस पार्टी की फितरत में ही यह शामिल हो चुका है कि वह चार, साढ़े चार साल तक मजे से शासन करती है किंतु जब चुनावी वर्ष आता है तो जनता की सेवा में लग जाती है। देश की जनता भी इतनी भोली-भाली है कि वह कांग्रेस की चिकनी-चुपड़ी बातों एवं लोक लुभावन वादों में फंस जाती है, किंतु इन योजनाओं के वही परिणाम आते हैं ढाक के तीन पात। अतः सरकार लोकलुभावन योजनाओं एवं वादों को छोड़ जनता को ऐसा शासन दे जिसमें कोई छल एवं प्रपंच न हो।