अभिशाप बन रहा है अकेलापन…


मनुष्य प्राचीनकाल से ही एक सामाजिक प्राणी रहा है। समूह एवं परिवार में रहने का उसका प्राचीन काल से ही स्वभाव रहा है। इसी समूह एवं परिवार में रहकर वह सब कुछ सीखता एवं समझता है और बाद में अपने बच्चों, परिवार एवं समाज को सिखाने का भी काम करता है। इस कार्य में उसे आनंद की अनुभूति होती है। सिर्फ मनुष्य ही नहीं सृष्टि के सभी जीव-जंतु, पेड़-पौधे एवं जानवर स्वभाव से अपने आप में सामूहिकता को समेटे हुए हैं। समूह से अलग होने पर ये जीव-जंतु भी अस्तित्वहीन हो जाते हैं। चूंकि, मानव पृथ्वी पर कुदरत की अनमोल संरचना है। पृथ्वी के सभी पदार्थों, तत्वों एवं अन्य प्राणियों को नियंत्रित करने की इच्छा रखता है। मानव के लिए यह सब कर पाना तभी तक संभव है जब तक वह समूह एवं परिवार में रहता है।

ऋषि-मुनियों, गुरुओं, आश्रमों एवं गुरुकुलों में रहकर मनुष्य ज्ञान प्राप्त करता रहा है किंतु बदलते समय में कुछ इस प्रकार का वातावरण बन रहा है कि मनुष्य अकेलेपन की तरफ अग्रसर होता जा रहा है। सर्व दृष्टि से यह विदित होता जा रहा है कि अकेलापन न सिर्फ अभिशाप बन रहा है बल्कि समय से पूर्व लोगों को बुढ़ापे की तरफ धकेल रहा है। इस अकेलेपन को बढ़ावा देने में विकसित एवं पाश्चात्य देशों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

बदलते दौर में जब से लोग अकेलेपन में रहने लगे हैं या अकेले रहने के लिए विवश हुए हैं, तबसे अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हुई हैं एवं सामाजिक-पारिवारिक ढांचे को बहुत आघात भी पहुंचा है। अकेलापन न सिर्फ नई-नई बीमारियों को जन्म दे रहा है बल्कि नकारात्मक विचारधारा को भी और अधिक तीव्र कर रहा है। जब व्यक्ति अकेला होता है या आत्म केंद्रित होता है तो उसके दिमाग में तमाम नकारात्मक बातें घूमती रहती हैं और उसे लगता है कि इस दुनिया में वह अकेला पड़ गया है, उसके सामने कोई रास्ता बचा नहीं है तथा वह इस सृष्टि का सबसे अभागा, नकारा एवं असफल इंसान है। वैसे भी एक प्राचीन कहावत है कि ‘खाली दिमाग, शैतान का डेरा’ यानी व्यक्ति बिना काम का या अकेला रहता है तो उसके दिमाग में खुराफात ही ज्यादा आती है।

वर्तमान समय में लोगों की जीवन शैली ऐसी बन गई है कि चाहकर भी लोग अकेलेपन से ऊबर नहीं पा रहे हैं। अपनी इच्छाओं की पूर्ति, समाज एवं भौतिकतावादी दुनिया में अपना विशेष रूतबा हासिल करने के लिए लोगों को बहुत कुछ करना पड़ रहा है। एक ही घर में रहते हुए पति-पत्नी कई-कई दिनों तक बात नहीं कर पाते हैं क्योंकि कोई रात में ड्यूटी कर रहा है तो कोई दिन में। ऐसी स्थिति में मां-बाप अपने बच्चों का भी ध्यान नहीं दे पाते हैं। बहुत छोटे बच्चों को तो दाइयों एवं नौकरानियों के सहारे छोड़ दिया जाता है। नौकरानियों एवं दाइयों का रिश्ता बच्चे के साथ काफी हद तक भावनात्मक एवं ममत्व वाला होने की बजाय आर्थिक होता है। मां-बाप के प्यार से वंचित बच्चे का जीवन अधूरा ही कहा जा सकता है। ऐसे में बच्चे का स्वाभाविक रूप से मानसिक विकास नहीं हो पाता है और वह अकेलेपन की तरफ बढ़ता जाता है। जब वह अकेला होता है तो कंप्यूटर, मोबाईल और अन्य आधुनिक उपकरणों के सहारे अपना समय बिताता है। ऐसे में उसके अंदर तमाम तरह की मानसिक विकृतियां पैदा होती हैं क्योंकि बच्चे का स्वाभाविक विकास परिवार, दादा-दादी एवं नाना-नानी के सानिध्य में रहकर ही होता है।

आज समाज में ‘छोटा परिवार-सुखी परिवार’ एवं ‘हम दो-हमारे दो’ का प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ा है। ऐसे में प्राचीन काल से चली आ रही संयुक्त परिवार की अवधारणा ध्वस्त होती जा रही है। संयुक्त परिवार में रहते हुए दादा-दादी एवं नाना-नानी अपने पूरे जीवन का अनुभव एवं प्यार बच्चों पर उड़ेल देते थे। नाती-पोते देखकर एवं उनके साथ रहकर बुढ़ापा भी स्वर्ग बन जाता था और दादा-दादी एवं नाना-नानी की खुशियां अपार हो जाती थीं। इससे बच्चों का भी मानसिक एवं शारीरिक विकास होता था और बुजुर्ग भी अपना जीवन धन्य समझते थे। इसके साथ ही वे अपने जीवन का पूरा तजुर्बा बच्चों में बिखेर देते थे।

भारतीय समाज में एक बहुत प्राचीन अवधारणा है कि ‘औलाद बुढ़ापे का सहारा होती है’ यानी जिसके पास औलाद है उसे बुढ़ापे में कोई कष्ट नहीं होगा, इस बात की गारंटी माना जाता था। बच्चे जब कोई गलती करते थे तो मां-बाप की डांट एवं मार से बचने के लिए दादा-दादी एवं नाना-नानी की गोद में छिप जाया करते थे। स्कूलों की जब छुट्टियां होती थीं तो नाना-नानी के यहां जाने की योजना बनती थी और बच्चों को अपार खुशी मिलती थी किंतु आज छुट्टियां बिताने के नाम पर काफी पैसा खर्च होता है। नामी-गिरामी शहरों एवं पर्यटन स्थलों पर घूमने-फिरने के बावजूद यदि शांति नहीं मिल रही है तो इसके क्या कारण हैं? इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

संयुक्त परिवार में रहने से बच्चों को देखकर एवं उनके प्यार-दुलार से बुजुर्गों को जो ऊर्जा एवं ताकत मिलती है उसे कोई भी धन-दौलत नहीं दे सकती है। इसी प्रकार संयुक्त परिवार में रहकर बच्चों को जब चाचा-चाची, मामा-मामी, दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ-फूफा, भैया-भाभी एवं अन्य रिश्तों का प्यार मिलता है तो बच्चे के जीवन में न सिर्फ खुशियों का खजाना जमा होता है बल्कि वह मानसिक रूप से परिपक्व रूप से तैयार होता है यानी यह भी कहा जा सकता है कि परिवार के साथ रहकर बच्चों, बुजुर्गों एवं युवाओं को जो खुशी मुफ्त में मिलती है वह रुपये-पैसे से किसी भी कीमत पर हासिल नहीं जा की सकती है।

चूंकि, आज छोटे परिवार का जमाना है, इसलिए बुढ़ापे की लाठी यानी औलाद साथ छोड़ती जा रही है। घर में अकेले या वृद्धाश्रम में रहने के लिए विवश होना पड़ रहा है। अकेले रहने का दर्द या परिणाम क्या हो रहा है, यह समाज में स्पष्ट रूप में देखने को मिल रहा है। बुजुर्गों का तो जो हाल हो रहा है वह तो है ही, बच्चे एवं युवा भी अनेक प्रकार की बीमारियों का शिकार होकर तनाव में जी रहे हैं। युवा अकेलेपन के कारण तनाव, क्रोध, ईर्ष्या डिप्रेशन, हीन भावना, डिमेंशिया का शिकार हो रहे हैं और उनके दिमाग में नकारात्मकता हावी होती जा रही है। मां-बाप के समय न देने के कारण बच्चों का चहुंमुखी विकास नहीं हो पा रहा है और बच्चे परिवार एवं समाज के साथ रहने वाले लाभों से वंचित होकर कुंठित भावनाओं का शिकार हो रहे हैं। इस परिस्थिति में लोगों को लगता है कि समाज उनको नकार रहा है और उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। ऐसी स्थिति में अकेलेपन के शिकार लोग समाज को भी नकारते जा रहे हैं। इससे आत्म हत्याएं भी बढ़ रही हैं।

बुजुर्गों की यदि बात की जाये तो भारतीय समाज में एक बहुत पुरानी कहावत प्रचलित है कि ‘बच्चे एवं बूढ़े एक समान होते हैं’। बच्चे-बूढ़े एक समान – इस बात का आशय यह है कि बूढ़े बच्चों का मन बहलाने के लिए बच्चों की तरह खेलने लगते हैं। बच्चों को पीठ पर बैठाने के लिए कभी घोड़ा बन जाते हैं तो कभी कुछ, क्योंकि बच्चों को खुश रखने एवं संभालने की जिम्मेदारी मां-बाप से अधिक दादा-दादी एवं नाना-नानी की होती थी।  वे बच्चों के साथ बच्चा बनकर सिखाते हैं, चलाते हैं और पकाते हैं। बच्चों-बूढ़ों के इसी मेल को कहा जाने लगा कि बच्चे-बूढ़े एक समान होते हैं इसीलिए कहा गया है कि उम्र जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, बचपना हावी हो जाता है। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि अकेलापन किसी के लिए भी अच्छा नहीं है। चाहे वह बच्चा हो, युवा हो या बुजुर्ग। अकेलापन सिर्फ समस्या है, बीमारी है, मौत के करीब जाने का रास्ता है इसलिए इसका परित्याग सभी को करना चाहिए।

अकेलेपन के दर्द एवं एहसास को एक उदाहरण के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है। कोई राजनेता हो या किसी भी क्षेत्र का सेलिब्रिटी, जब तक उसे घर-परिवार, समाज एवं लोगों को स्नेह मिलता है तब तक उसका विकास निरंतर होता रहता है और वह स्वस्थ एवं प्रसन्न भी रहता है किंतु जब वह गुमनामी का शिकार होता है तो उसके लिए स्वस्थ एवं प्रसन्न रहने के दरवाजे बंद हो जाते हैं यानी अकेलापन अभिशाप बन जाता है।

अमेरिका, ब्रिटेन एवं अन्य पाश्चात्य देशों के वृद्धाश्रमों पर एक शोध में कहा गया है कि वृद्धाश्रमों में रह रहे लोगों को लगता है कि वे वहां सिर्फ मौत की उलटी गिनती गिन रहे हैं; उनका एक-एक पल काटना बहुत ही मुश्किल काम है। वे हमेशा टकटकी लगाकर देखते रहते हैं कि शायद उनका कोई परिजन या शुभचिंतक आ जाये उनका हाल पूछने के लिए। ऐसे लोगों में अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें पैसे एवं सुविधाओं की कोई कमी नहीं है। कमी सिर्फ इस बात की है कि अपने बेटों-बहुओं, नाती-पोतों एवं अन्य परिजनों को देखने एवं उन पर प्यार उड़ेलने के लिए आंखें तरस रही हैं।

अकेलेपन के अभिशाप से उबरने के लिए रिटायर्ड होने एवं अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद तमाम लोग अपने आप को सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं अन्य गतिविधियों में व्यस्त रखने लगे हैं। ऐसी गतिविधियों में संलग्न रहने से लोगों की खुशियों का तापमान कभी गिरता नहीं और लोग अकेलेपन के कष्ट से मुक्त भी रहते हैं। वैसे भी अकेलेपन की समस्या विश्व व्यापी हो चुकी है। यह आधुनिक जीवन शैली की देन है जिसमें समाज ‘हम’ से ’मैं’ पर आ गया है। व्यस्तताएं कुछ इस प्रकार की हो गई हैं कि मित्रा-परिवार की बात ही छोड़ दीजिए जीवन संगिनी के साथ भी जीवन में स्थान बना पाना कठिन हो गया है। आज जीवन की पूरी जद्दोजहद खुद के लिए है, बाकी रिश्ते एवं खुशियां गौण हो गई हैं।

अकेलापन किसी भी इंसान को जीते जी मार देता है। बर्नार्ड शॉ के मुताबिक ‘लोग मरते तो बहुत पहले हैं; लेकिन दफनाए बहुत बाद में जाते हैं।’ मरने एवं दफनाने के बीच का यह फासला ही अकेलेपन की त्रासदी है जिसमें आदमी घुट-घुट कर मरता है। तकनीकी साधनों के द्वारा अकेलेपन की समस्या से ज्यादा दिनों तक निजात नहीं पाई जा सकती है।

भारतीय समाज एवं जीवन शैली में अकेलेपन का महत्व सिर्फ ध्यान एवं अध्यात्म की दृष्टि से ही अच्छा माना जाता है। अपनी सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के बाद जब लोगों के मन में पूर्ण अध्यात्म की इच्छा जागृत होती है तो लोग ध्यान लगाते हैं, क्योंकि गहन एकांतवास को महसूस करने के लिए शून्यता की तरफ बढ़ना पड़ता है। शून्यता की स्थिति में परम आनंद की अनुभूति होती है। इस स्थिति में यदि दिमागी भटकाव होता है तो ध्यान एवं अध्यात्म की पूर्णता नहीं मिल पाती है किंतु इस ध्यान के बाद जब व्यक्ति को सामान्य से अधिक ज्ञान हो जाता है तो वह अपने ज्ञान को समाज में बिखेरना प्रारंभ कर देता है। कहने का आशय यह है कि ध्यान, अध्यात्म एवं ज्ञान की प्राप्ति के लिए स्वतः अपनाया गया अकेलापन ही लाभकारी है। इसके अतिरिक्त किसी भी तरह के अकेलेपन को अच्छा नहीं कहा जा सकता है।

भारतीय समाज सहित पूरी दुनिया में सुरसा की तरह बढ़ रही अकेलेपन की समस्या से यदि निजात पानी है तो भारतीय जीवन शैली एवं अपनी प्राचीन जीवन पद्धति को ही अपनाना होगा, क्योंकि अब यह पूरी तरह प्रमाणित हो चुका है कि ‘हमारा अतीत अच्छा था और वर्तमान खराब। अकेलेपन को दूर करने के लिए हमारी प्राचीन जीवन पद्धति ही एक मात्रा विकल्प है। ‘हम दो-हमारे दो’ के सिद्धांत को छोड़कर संयुक्त परिवार की तरफ आना होगा। बचपन में बच्चों को मां-बाप का प्यार देना ही होगा। बुजुर्गों को बोझ समझने के बजाय अपने लिए छाया मानना पड़ेगा।

बुजुर्ग बरगद के पेड़ की तरह हैं जिसके नीचे बैठकर सिर्फ छाया ही नहीं बल्कि शुकून भी मिलता है। युवावस्था में मित्रों, शुभचिंतकों, परिजनों की शुभकामनाओं के साथ ही घर में बच्चों की किलकारी, मां-बाप की डांट एवं प्यार तथा दादा-दादी के दुलार की भी बहुत आवश्यकता है। इसी प्रकार की जीवन शैली के माध्यम से ही अकेलेपन का मुकाबला किया जा सकता है। वैसे भी एक पुरानी कहावत है कि ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता।’ कभी-कभी देखने में आया है कि अकेले शेर पर झुंड में कुत्ते एवं सूअर भी भारी पड़ जाते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि परिवार, समूह एवं समाज में रहकर ही किसी का सर्वांगीण विकास हो सकता है तो आइये, पुनः हम अपनी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति एवं जीवन शैली की ओर अग्रसर होकर स्वयं स्वस्थ और प्रसन्न रहें एवं औरों को भी स्वस्थ एवं प्रसन्न बनायें।

अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)

(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के

ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय

कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)