सूुप्रसिद्ध समाज सेवी अन्ना हजारे के आन्दोलन के समय नेताओं की किरकिरी होने लगी तो उन्होंने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि अन्ना की टीम व्यवस्था के प्रति आम लोगों को भड़का रही है और अराजकता उत्पन्न करने की पृष्ठभूमि तैयार कर रही है, मगर ये नेता यह कभी नहीं सोचते कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्या उन्हें अपने गिरेबान में झांककर अपनी कमियों का मूल्यांकन कर उसे दूर करने का प्रयास नहीं करना चाहिए? आखिर नेता चाहते क्या हैं? क्या वे यह चाहते हैं कि वे जो कुछ भी करें जनता उनको हर हाल में समर्थन देती रहे। भय, भूख, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद एवं अन्य प्रकार की समस्याओं से ग्रसित आम जनता तो दो वक्त की रोटी भी शुकून के साथ नहीं खा सकती है। भारी सुरक्षा व्यवस्था एवं सरकारी खर्च पर जीवन यापन करने वाले नेता क्या जानें कि जनता किस हाल में जी रही है? ऊपर से कह दिया जाता है कि लोगों की आमदनी बढ़ रही है, इसलिए महंगाई भी बढ़ रही है। क्या सरकारी खर्च पर पलने वाले नेताओं ने कभी यह सोचा कि कितने लोगों की आमदनी बढ़ रही है? क्या सरकार को यह पता है कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोग अपना गुजर-बसर कैसे कर रहे हैं?
हद तो तब हो गयी जब योजना आयोग ने दावा किया कि शहरों में 32 रुपये और गांवों में 26 रुपये प्रति दिन खर्च करने वाला बीपीएल के दायरे में नहीं आता। योजना आयोग की इस हरकत को जले पर नमक छिड़कना नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? समझ में नहीं आता कि इस देश को चलाने वाले लोग क्या इस कदर अपनी जड़ों से कटे हुए हैं? वास्तविकाता से उनका कोई सरोकार नहीं है। फिर भी जनता चुप है। यदि जनता अनशन करेगी तो प्रधानमंत्री कहेंगे कि अपनी बातों को मनवाने का यह तरीका ठीक नहीं है। देश की जनता प्रधानमंत्री एवं यूपीए सरकार से पूछना चाहती है कि आखिर सरकार कौन-सी भाषा
समझती है?
ऐसे आंकड़े कौन तैयार करता है? सवाल इस बात का नहीं है, सवाल तो इस बात का है कि ऐसे आंकड़े तैयार करने वाले क्या इतने संवेदनहीन एवं जमीनी सच्चाई से इतने अनभिज्ञ हैं कि वे आंकड़ों के सहारे देश से गरीबी दूर करना चाहते हैं? आंकड़ों की बाजीगरी से सरकार तो चल सकती है, मगर आम जनता एवं समाज का कल्याण नहीं हो सकता है।
आंकड़ों के बाजीगर यदि इन आंकड़ों का प्रयोग अपने एवं अपने परिवार पर आजमा कर देखें तो उनकी समझ में आ जायेगा कि वास्तविकता क्या है? सरकार के वश में यदि कुछ करना नहीं है तो कम से कम वह लोगों के जले पर नमक तो न छिड़के। यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री सहित तमाम अर्थशास्त्रियों की एक लंबी लाइन है, मगर सरकार तो सिर्फ महंगाई की भाषा समझती है। सरकार सिर्फ जनता से पैसा वसूलना चाहती है, मगर समाज कल्याण की तरफ उसका ध्यान कम जा रहा है। इन परिस्थितियों में अन्ना हजारे जैसा कोई समाज सेवी यदि अनशन के लिए आ जाता है तो सरकार के हाथ-पांव फूल जाते हैं। जनता सरकार के सामने गिड़गिड़ाती है, मगर सरकार जनता की गिड़गिड़ाहट को नजरअंदाज कर देती है। आखिर जनता करे तो क्या करे? किसके पास जाये? आज जनता बेबश है? अतः आवश्यकता इस बात की है कि सरकार, नेता एवं अधिकारी संवेदनशील बनें, जनता के दुख-दर्द में शरीक हों? अन्यथा किसी दिन ‘सरकार एवं राजनीतिज्ञों को बहुत पछताना पड़ेगा, क्योंकि यह जनता है, सब जानती है, सबको समझाना और सही रासते पर लाना भी जानती है। अतः अभी वक्त है, संभलने का? वरना देर हो जायेगी।